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कालक्रम में कैसे-कैसे परिवर्तन हुए हैं, उन्हें देख सकेंगे, साथ ही यह भी समझ सकेंगे कि आगमयुग से लेकर आज तक महावीर से लेकर महाप्रज्ञ तक जैन ध्यान-परम्परा में कैसा विकास हुआ है और उसमें इस मूलग्रन्थ की क्या भूमिका रही है।
__यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि महावीर से लेकर आज तक जैन-ध्यान की परम्परा जीवित तो रही, किन्तु मध्यकाल में उसमें जो एक जड़ता आ गई थी, उसे आज की प्रेक्षा ध्यान-पद्धति ने किस प्रकार तोड़ा है, उसे भी समझ सकें। प्रस्तुत शोध-कार्य मूलतः ग्रन्थ आधारित है, अतः इसकी शोध-प्रविधि में इसके समकालिक एवं पूर्ववर्ती तथा परवर्ती ग्रन्थों का अध्ययन ही मुख्य रहेगा। पूर्ववर्ती ग्रन्थ के अध्ययन के माध्यम से मैं यह देखने का प्रयत्न करूंगी कि प्रस्तुत शोध-ग्रन्थ में उनकी अवधारणाओं को किस प्रकार समाहित किया गया है अथवा उन्हें किस प्रकार परिष्कारित किया गया है।
इसी प्रकार, परवर्ती ग्रन्थों के अध्ययन के माध्यम से यह भी जानने का प्रयत्न करेंगे कि इन ग्रन्थों में इस मूल ग्रन्थ एवं उसकी टीका की अवधारणाएँ किस प्रकार समाहित हुई और कालक्रम में उनमें कैसे नवीन तथ्य जुड़े।
यद्यपि यह शोध-कार्य ग्रन्थ आधारित है, अतः इसमें प्रायोगिक विधि का समावेश संभव तो नहीं है, फिर भी एक साध्वी होने के नाते मैं इतना प्रयत्न तो अवश्य करूंगी कि ध्यान के प्रयोगों के माध्यम से मानव-मन को किस प्रकार तनाव-मुक्त बनाया जा सकता है।
अध्याय संरचना -
प्रस्तुत कृति छह अध्यायों में विभक्त है। इस शोध-प्रबंध के प्रथम अध्याय में ग्रन्थ के नामकरण, परिचय, भाषा तथा विषय-वस्तु की चर्चा के साथ-साथ मूलग्रन्थ का, उसके टीकाकार का परिचय तथा उनके साहित्यिक अवदान और विशेष रूप से ध्यान और योग से सम्बन्धित अवदान की चर्चा की गई है।
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