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4. अनुकम्पा – मन में अनुकम्पा होना। अनुकम्पा के स्व–पर भेद से दो प्रकार हैंस्वानुकम्पा (स्वदया) एवं परानुकम्पा (परदया)। भोगोपभोग, स्वागत-सत्कार, यश, कीर्ति आदि की लिप्सा छोड़कर यह आत्मा किस प्रकार स्व-स्वभाव में स्थित रहे और नरक तिर्यंच आदि संसार-भ्रमण से मुक्त बने– यह स्वानुकम्पा है। अन्य प्राणियों को दुःखों से मुक्त कर सुखी कैसे बनाऊं, ऐसी आन्तरिक कारूण्य-भावना का नाम परानुकम्पा है। 5. आस्तिक्य - सर्वज्ञप्रणीत जीवाजीव, पुण्य-पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष- इन नवतत्त्वों में श्रद्धा करना आस्तिक्य है।
सम्यक्त्व के उपर्युक्त पाँच लिंगों (लक्षणों) की ओर कम से बढ़ता हुआ जीव पूर्णता को प्राप्त करता है। सर्व-प्रथम क्रोधादि से विरत होता है, फिर पापों से भयभीत रहता है, बाद में स्व-पर अनुकम्पा में रत होता है। तत्पश्चात् जिन-प्रणीत आत्मधर्म में स्थित होता है। यही मोक्ष है, यही भव-यात्रा का विराम है,यही विश्राम है, अर्थात्- उपशम प्रारम्भ है, आस्तिक्य पूर्ण है।
उपशम साधना है एवं आस्तिक्य साध्य है। वास्तव में सम्यग्दर्शन आत्मा की अनुपम निधि है। जगत् की ऋद्धि-सिद्धि को पाना सुलभ है, पर अतिचाररहित सम्यक्त्वरूपी निधि को पाना दुर्लभ है और सम्यक्त्व को प्राप्त करने के बाद सम्यक्त्व में स्थिर रहना तो अत्यधिक दुर्लभ है, इसलिए सम्यक्त्व को स्थिर रखने के लिए उपाय बताए गए हैं। जो सम्यक्त्व करते हैं, वे पाँच कारण हैं - (1) स्थिरता (2) कुशलता (3) प्रभावना 4) भक्ति और (5) तीर्थ-सेवा। 1. स्थिरता – सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित धर्म पर दृढ़ विश्वास रखना तथा दृढ़ता के साथ उसका पालन करना। 2. कुशलता – सम्यग्दृष्टि साधक को धर्मशास्त्रों की पूर्ण रूप से जानकारी रखना चाहिए, जिससे धर्म-पतित को बोध देकर पुनः धर्म में स्थिर किया जा सके तथा धर्म पर कोई आक्षेप करे, तो उसका सम्यक् रूप से निवारण कर सके।
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