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________________ और इसी चर्चा में उन्होंने जैन धर्म में मान्य पांच मुद्राओं का भी उल्लेख किया है। प्रस्तुत अध्ययन में इसका समावेश भी तप के अन्तर्गत ही किया गया है। अतः यह स्पष्ट है कि पंचाशक प्रकरण पर लिखा जाने वाला यह शोध प्रबन्ध न केवल जैन गृहस्थ आचार और मुनि आचार के पिष्टपेशन तक ही सीमित नहीं रहा है, अपितु जैन आचार और विधि-विधानों की अनेक समस्याओं का युगीन सन्दर्भ में निराकरण भी प्रस्तुत करता है। ये सभी विषय तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि कालान्तर में जैन आचार के व्यवहार पक्ष में कहाँ-कहाँ और किस रूप में परिवर्तन आया है, यद्यपि ये सभी विधि-विधान श्रावक एवं साधु के लिए करणीय माने गये हैं, किन्तु इसमें कुछ विधि विधान ऐसे भी हैं जो चाहे साधु के लिए द्रव्य रूप से करणीय नहीं माने गये हों किन्तु वे भी भाव रूप से तो साधु के लिये भी करणीय बताये गये है। ये सभी तथ्य प्रस्तुत अध्ययन के औचित्य को स्थापित करते है। इस शोध कार्य का मुख्य उद्देश्य जैन क्रियाकाण्ड के सम्बन्ध में आचार्य हरिभद्र के दृष्टिकोण से विद्वानों और समाजजनों को अवगत कराना है यद्यपि आचार्य हरिभद्र मुख्यतः योगसाधना, आध्यात्मिक और दार्शनिक समस्याओं के सन्दर्भ में समन्वयात्मक दृष्टि के प्रस्तोता माने जाते है, किन्तु पंचाशकप्रकरण में उनकी विशेषता यह रही है कि उन्होंने जैन क्रियाकाण्ड को युक्तिसंगत ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है, जैसे- मन्दिर निर्माण में भूमि कैसी और कहाँ हो, भूमि स्वामी और मन्दिर निर्माताओं का पारिश्रमिक आदि किस परिस्थिति में किस प्रकार से दिया जाये ? ताकि उनमें जिन शासन के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो ? इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ में उनके व्यावहारिक समस्याओं को उठाकर उनके समाधान का भी प्रयत्न किया है। विद्वत्वर्ग और समाज उनकी इस उदारदृष्टि से परिचित हो और आचार्य हरिभद्र की बौद्धिक क्षमता का सम्यक् आकलन करे, यही इस शोधकार्य का मुख्य उद्देश्य रहा है। सामान्यतया शोधकार्यों में परिकल्पना (Hypothesis) की योजना वैज्ञानिक शोधकार्यों में आवश्यक होती है, किन्तु प्रस्तुत शोध मुख्यतः ग्रन्थ आधारित है अतः इस शोधकार्य में शोध परिकल्पना इतनी आवश्यक प्रतीत नहीं होती थी, फिर भी प्रस्तुत प्रसंग में शोध परिकल्पना यही रही है कि आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक प्रकरण में जिन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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