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________________ पं. दलसुख मालवणिया के अनुसार राजशेखर के समय का ही एक अन्य दर्शन-ग्रन्थ आचार्य मेरुतुंग कृत 'षड्दर्शन-निर्णय' है। इसमें छः ही दर्शनों का निरूपण किया है, पर हरिभद्र जैसी उदारता का उसमें अभाव ही है। इसके अतिरिक्त सोमतिलकसूरि कृत 'षड्दर्शन-समुच्चय की वृत्ति के अन्त में' अज्ञात कृति अंकित है। इसमें भी षड्दर्शनों का विवरण दिया है, किन्तु अन्य में अन्य दर्शनों को निम्न कोटि में तथा जैन-दर्शन को प्रथम श्रेणी में रखा गया है। इस प्रकार जैन व जैनेतर परम्परा में दर्शन से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थ लिखे गए, जिन सभी का उल्लेख करना असम्भव है। यद्यपि कुछ प्रमुख दार्शनिकों के ग्रन्थों से हरिभद्र के ग्रन्थ की तुलना करने पर यही सिद्ध हुआ कि आचार्य हरिभद्र एकमात्र ऐसे लेखक हैं, जिन्होंने निष्पक्ष भाव से व प्रामाणिकता के साथ दर्शन-क्षितिज पर अपना स्थान अद्वितीय बनाकर सभी को विस्मित रखा है। ___3. सभी धर्मों के विद्वानों के प्रति आदर-भाव एवं आदरसूचक शब्दों का व्यवहारप्रायः सर्व धर्म के विद्वानों की यह प्रवृत्ति रही कि स्वपद का मण्डन करना व परपक्ष का खण्डन करना और यह परम्परा अर्वाचीन ही नहीं, अपितु प्राचीनकाल से ही चली आ रही है, अतः हरिभद्र भी इसके अपवाद नहीं रहे फिर भी हरिभद्र इन सबसे भिन्न हैं। क्योंकि हरिभद्र की यह विशेषता रही कि उन्होंने किसी भी दर्शन की समीक्षा करते हुए यह गलती नहीं की कि अन्य दर्शनों पर व्यंग्यात्मक शब्दों की बौछार की हो, या अशिष्ट शब्दों का प्रयोग किया हो, या उनके विद्वानों का उपहास किया हो। हालांकि, हरिभद्र ने धूर्ताख्यान में व्यंग्यात्मक शब्दों का प्रयोग किया है, पर परवर्ती ग्रन्थों में ऐसा प्रतीत नहीं होता है। लगता है कि उनकी बढ़ती विद्वत्ता के साथ-साथ उनकी प्रज्ञा व विवेक भी निखरता रहा और यही कारण है कि पक्षपात की बुद्धि उनके ग्रन्थों में स्थान नहीं ले पाई। अन्य विद्वानों के प्रति हरिभद्र के हृदय में जो आदरभाव था, और उन भावों की अभिव्यक्ति हमें स्पष्ट रूप से 'शास्त्रवार्ता-समुच्चय' में देखने को मिलती है। हरिभद्र ने अपने ग्रन्थ 'शास्त्रवार्ता-समुच्चय' के प्रारम्भ में ही ग्रन्थ-रचना का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए लिखाते है यं श्रुत्वा सर्व शास्त्रेषु प्रायस्तव विनिश्चयः । जायते द्वेषशमनः स्वर्ग सिद्धि सुखावहः।। अर्थात्, शास्त्र को सुनकर अथवा पढ़कर अन्य सभी दर्शनों के प्रति द्वेष का शमन कर, निश्चय से तत्त्वबोध को प्राप्त कर स्वर्ग- अपवर्ग के सुख को प्राप्त करेंगे। इस ग्रन्थ में वे कपिल को दिव्य पुरुष एवं महामुनि के रूप में सम्बोधित करते हैं"कपिलो दिव्योहि स महामुनिः", शास्त्रवार्ता-समुच्चय- 237 45 षड्दर्शन-समुच्चय की प्रस्तावना, संपा-प्रो. महेन्द्र कुमार, पृ. 19 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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