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________________ तो यहाँ तक कहा गया है कि मात्र ज्ञान होने से ही कार्य सिद्ध नही होता है, जैसे कोई तैराक तैरना तो जानता है पर तैरने की क्रिया न करें तो वह सागर से पार नहीं होगा अर्थात डूब जावेगा। - आवश्यक नियुक्ति-भद्रबाहु स्वामी 95-159 इसी तरह आगमों का ज्ञाता होते हुये भी धर्म का आचरण नहीं करे, तो वह संसार सागर में पार नही होगा, भवभ्रमण करता रहेगा। जैसे, अंधा या पंगु व्यक्ति एकाकी हो तो वह अपने लक्ष्य स्थल पर नहीं पहुँच सकता, उसी प्रकार मात्र आगमों का ज्ञाता हो या मात्र क्रियाशील हो, उन्हें एक दूसरे के सहयोग के अभाव में सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती है। सिद्धि प्राप्त करने के लिए ज्ञान और क्रिया दोनों का सम्यक् सहयोग आवश्यक है अर्थात् साधना में विधि-विधानों का स्थान है। विधि-विधान हमें यह बताते है कि सम्यक् क्रिया किस प्रकार से की जाना चाहिए। विधि-विधानों के प्रयोजन अनुष्ठान एवं धार्मिक आराधना का सम्यकत्व उसके विधि-विधान पूर्वक ही होता है। विधि विधान की आवश्यकता किन कारणों से होती है ऐसा प्रश्न प्रायः सभी के मन में उभरता ही है ? इन विषय पर गहन मनन एवं चिन्तन करने पर निम्न बिन्दुओं ज्ञात होता है __ 1. धार्मिक क्रियाओं के द्वारा सावद्य (सरोष) क्रियाएं कम होती है' धीरे-धीरे आत्मा विशुद्धि की ओर बढ़ते-बढ़ते परमात्मा के स्वरूप की धारण करती है। धार्मिक क्रियाओं के माध्यम से समय का सदुपयोग होता है एवं आश्रव का निरोध होकर संवर होता है एवं पूर्व बद्ध कर्मो की निर्जरा होती है। 3. धार्मिक विधि-विधानों से मानसिक अशान्ति, मानसिक विकार एवं मानसिक रोगों से भी मुक्ति मिलती है। 648 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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