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________________ इस पंचाशक में आचार्य हरिभद्र ने उन्हें ही श्रमण बताया है, जो पापभीरू हैं, विनीत हैं, जिन्होंने कषायों को कृश कर दिया है, इन्द्रियों का निग्रह कर लिया है, जो संसार से मुक्त होने के लिए सतत प्रयत्नशील रहते हैं। अष्टादश पंचाशक (भिक्षुप्रतिमाकल्प-विधि) अठारहवें पंचाशक में आचार्य हरिभद्र ने भिक्षुप्रतिमाकल्प-विधि का विवेचन किया है। प्रस्तुत पंचाशक में अरिहंत परमात्मा द्वारा कथित बारह भिक्षु-प्रतिमाओं का विवरण किया है। यह दर्शाया गया है कि साधुओं के विशिष्ट परिणाम ही प्रतिमा हैं। प्रतिमाधारी के लक्षण बताते हुए कहा है संहननयुक्त, धैर्यशाली, उत्कृष्टतः कुछ कम दस पूर्व और जघन्य नौवें पूर्व की तीसरी वस्तु तक का ज्ञान अर्जित किया हुआ, जिनकल्पी की तरह अभिगृहपूर्वक एषणा ग्रहण करने वाला, आदि गुणों से युक्त साधु ही गुरु की आज्ञा प्राप्त कर इन प्रतिमाओं की साधना कर सकता है। शरद-ऋतु में शुभ वेला में सभी साधुओं से क्षमा याचना कर गच्छ से पृथक् होकर श्रमण प्रतिमाओं की साधना करता है। प्रतिमाधारी साधु को सदा स्वाध्याय व आत्म चिंतन में निरत रहना चाहिए, क्योंकि आत्म चिंतन में रहने वाला ही राग द्वेष और मोह से विरक्त हो, भवविरह को प्राप्त होता है। एकोनविंश पंचाशक (तपविधि) प्रस्तुत पंचाशक में तपविधि का विवरण किया है। जिस तप के द्वारा कषाय कृश हों, विषयविकार का वर्जन हो, ब्रह्मचर्य की शक्ति विकसित हो, परमात्मा की पूजा हो, तब ये तप वास्तविक तप होते हैं। तप के दो विभाग किए गए हैं -1. बाह्य तप व 2. आभ्यंतर तप। बाह्य व आंतरिक भेद से तप के बारह प्रकार हैं। बाह्य तप के छः प्रकार हैं एवं आन्तरिक तप के भी छः प्रकार हैं। बाह्य तप- जो तप काया से सम्बन्धित हैं तथा बाहरी रुप से भी तपरूप दिखाई देने वाले हैं, वे बाह्य तप कहलाते हैं। छः बाह्यतप हैं- अनशन, ऊनोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश, प्रतिसंलिनता। आभ्यन्तर तप- जो तप मुख्यतः मन से सम्बन्धित हैं, उन तपों को आन्तरिक तप कहा गया है। आन्तरिक तप के छः भेद निम्न हैं 1. प्रायश्चित्त 2. विनय 3. वैयावृत्य 4. स्वाध्याय 5. ध्यान और 6. व्युत्सर्ग। प्रस्तुत पंचाशक में इन बारह प्रकार के तपों के अतिरिक्त अन्य तपों की विधि का भी विवरण प्रस्तुत किया है। इस प्रकार मनोयोगपूर्वक श्रद्धा के साथ किया गया तप बोधि-बीज को प्राप्त करवाकर संसार-सागर से पार कराने वाला, अर्थात् भवविरह को प्राप्त कराने वाला होता है। 47 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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