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कारण है।
यह तप सभी को करना चाहिए, क्योंकि यह तप मोक्ष का परम श्रेष्ठ
इस तप की आराधना करने वाला किसी भी प्रकार की आकांक्षाओं एवं निदानों से रहित होता है। इस बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र तपोविधि - पंचाशक की एकतालीसवीं गाथा में स्पष्ट करते हैं
इन तपों में उद्यत जीव श्रद्धापूर्वक क्रिया करता है, इसलिए निदान ( आकांक्षा) रहित होता है। श्रद्धा या बहुमानपूर्वक क्रिया करने से शुभ अध्यवसाय (शुभभाव) होता है और शुभ अध्यवसाय से बोधिबीज प्राप्त होता है, जो भव- निर्वेद (संसार से मुक्ति) का कारण है, इसलिए ये सब तप कुछ जीवों के लिए भव - विरह (मुक्ति) का कारण होने से निदान - रहित हैं ।
उपर्युक्त कथन का समर्थन अन्य दार्शनिकों ने भी किया है। अन्य मत के समर्थन को आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक - प्रकरण की तपोविधि - पंचाशक की बयालीसवीं एवं तिरालीसवीं गाथाओं में स्पष्ट किया है
अन्य दार्शनिकों ने भी अध्यात्म-ग्रन्थों में विषय, स्वरूप और अनुबन्ध से शुद्ध अनुष्ठानों को मोक्ष का कारण बतलाया है। इस कारण ये तप मात्र मोक्ष का हेतु होने से निदान - रहित होते हैं।
विषय-शुद्ध
विषय, अर्थात् तप का आलम्बन, जैसे- तीर्थंकर-निष्क्रमण (दीक्षा)— तप में तीर्थंकर की दीक्षा आलम्बन है। जिस तप में आलम्बन शुद्ध हो, वह विषय-शुद्ध
है ।
स्वरूप-शुद्धगए दान आदि का स्वरूप शुद्ध हो, वह तप स्वरूप - शुद्ध है।
जिस तप में आहार - त्याग, ब्रह्मचर्य, जिनपूजा और श्रमणों को दिए
अनुबन्ध-शुद्ध
जिस तप चित्त की विशुद्धि भंग न हो, अपितु उत्तरोत्तर बढ़ती रहे, वह तप अनुबन्ध-शुद्ध है। पूर्वोक्त तप निर्दोष आलम्बन वाले होने से विषयशुद्ध हैं, इसलिए ये प्रार्थना या आकांक्षायुक्त होते हुए भी निर्दोष हैं, क्योंकि ‘आरोग्गबोहिलाभं
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2 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 19/41- पृ. - 349
3 पंचाशक- प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 19/42, 43 - पृ. - 349
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