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________________ वाला होगा और न जिनाज्ञा का विरोधी होगा। इसी विचारणा को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र भिक्षुप्रतिमा-कल्पविधि-पंचाशक की तैंतीसवीं एवं चौंतीसवीं गाथाओं में इस प्रकार से कहते हैं प्रतिमाकल्प को स्वीकार करने वाले साधु वैय्यावृत्य नहीं करते हैं, इसलिए यदि गच्छ में वैयावृत्य करने में समर्थ साधु प्रतिमाकल्प को स्वीकार करता है, तो गच्छ में रहने वाले बाल, वृद्ध, रोगी आदि की वैयावृत्य में अन्तराय होगा। प्रतिमाकल्पी साधु को अतिसूक्ष्म दोष का भी त्याग करना चाहिए। वैयावृत्य में अन्तरायरूप दोष मानसिक-दोष न होने पर भी अतिसूक्ष्म दोष है, इसलिए प्रतिमाकल्पी साधु को सर्वप्रथम तो उस अन्तराय-दोष का परिहार करना चाहिए। यदि गच्छ के अन्य साधु सूत्रार्थदान, वैयावृत्य आदि क्रियाओं को करने में समर्थ हों, तो प्रतिमाकल्प को स्वीकार करने वाले साधु ने गच्छ की उपेक्षा की- ऐसा नहीं कहा जा सकता, किन्तु यदि गच्छ में ऐसे साधु न हों, और प्रतिमाकल्प का उचित रीति से धारण नहीं कर सके, तो प्रतिमाकल्प धारण न करें। पुनः, यदि गच्छ में कोई ऐसा कार्य हो, जिससे गच्छ को विशेष लाभ होता हो और वह कार्य प्रतिमाकल्प स्वीकार करने वाले साधु से ही हो सकता हो, तो ऐसी स्थिति में उसे किए बिना ही वह प्रतिमाकल्प को स्वीकार करे, तो उसे गच्छ की उपेक्षा मानी जाएगी, अन्यथा नहीं। इस प्रकार, प्रतिमाकल्प को स्वीकार करने पर गच्छ की उपेक्षा न हो- यह विचार इस बात का प्रमाण है कि प्रतिमाकल्प गुरु-लाघव की विचारणा से युक्त है। प्रव्रज्या का महत्व- प्रतिमाधारण करने की तैयारी हो और प्रतिमाकल्प धारण करने के पूर्व यदि कोई दीक्षा लेने आए, तो सर्वप्रथम दीक्षा देना चाहिए, क्योंकि यह कहा गया है कि उपकारों में सर्वश्रेष्ठ उपकार किसी को दीक्षा देने का है। किसी को दीक्षा देने का अर्थ है- संसार की आग में जलते हुए, अथवा संसार-सागर में डूबते हुए उस जीव को बाहर निकालना, किसी को जलते हुए, डूबते हुए से बचा लेना। इससे बढ़कर क्या उपकार होगा ? अतः, प्रतिमाकल्प धारण करने से अधिक महत्व किसी को दीक्षा देने 1 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 18/33, 34 – पृ. - 326 568 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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