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________________ कुछ आचार्यों का मत है कि साधु और शय्यातर के उपकार्य-उपकारक-भाव के कारण स्नेह न हो- यह शय्यातरपिण्ड के निषेध का भावार्थ है। कुछ आचार्य कहते हैं कि यदि साधु शय्यातरपिण्ड न लें, तो शय्यातर को लगेगा कि ये साधु निःस्पृह हैं, इसलिए, पूज्य हैं- ऐसा भाव उत्पन्न होगा। यह शय्यातरपिण्ड-निषेध का भावार्थ है। कुछ आचार्यों का कहना है कि यह भगवान् की आज्ञा है, यही शय्यातरपिण्ड के निषेध का भावार्थ है। राजा का स्वरूप- आचार्य हरिभद्र स्थितास्थितकल्पविधि की बीसवीं गाथा में राजा के स्वरूप का कथन इस प्रकार करते हैं ___ मुदित शुद्धवंश में उत्पन्न और अभिषिक्त अर्थात् जिसका राज्याभिषेक किया गया हो, वह राजा है। राजपिण्ड आठ प्रकार का होता है। प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों के साधुओं के लिए यह 'राजपिण्ड' वर्जित है, क्योंकि इससे व्याघात आदि दोष लगते हैं। राजपिण्ड- राजा के यहाँ का आहार ग्रहण करना राजपिण्ड-दोष है, क्योंकि राजा के यहाँ से आहार लेने में आहार की गवेषणा सुचारू रूप से नहीं हो सकती है तथा गरिष्ठ आहार के कारण प्रमाद, क्रोध, लोभ आदि कषायों की वृद्धि हो सकती है, साथ ही सामान्य लोगों की साधु के प्रति अप्रीति हो सकती है कि ये साधु तो राजा के यहाँ से मिष्ठान्न आदि लाकर माल उड़ाते हैं, अपने यहाँ की भिक्षा इन्हें कहाँ अच्छी लगेगी, अथवा राजा के यहाँ अपमान आदि की भी पूर्णतया सम्भावना रहती है। इस कारण, साधुओं में भी परस्पर द्वेष की भावना उत्पन्न हो सकती है, वे राजा आदि से निन्दा भी कर सकते हैं, अतः रसलोलुप, कषाय, द्वेष, निन्दा आदि पापों से बचने के लिए, सयंम की आराधना करने के लिए, राजपिण्ड ग्रहण नहीं करना चाहिए। प्रश्न किया गया है कि जहाँ जिनधर्मी के घर न हों एवं अन्य कुल वाले भिक्षा न दे रहे हों, तो ऐसे समय में राजपिण्ड ग्रहण करना चाहिए या नहीं ? 539 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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