SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 557
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हरिभद्र ने स्थितास्थितकल्पविधि- पंचाशक की सत्रहवीं एवं अठारहवीं गाथाओं में कही है। शय्यातर का अर्थ होता है- साधुओं के उपाश्रय का मालिक। शय्यातर का जो पिण्ड है, वह शय्यातरपिण्ड कहा जाता है। अशन, पान, खादिम और स्वादिम– ये चार, वस्त्र, पात्र, रजोहरण और कम्बल- ये चार, सुई, अस्त्र, नाखून काटने का साधन और कान का मैल निकालने का साधन- ये चार, इस प्रकार शय्यातरपिण्ड कुल बारह प्रकार का होता है। ____ प्रथम, अंतिम, मध्यवर्ती और महाविदेह-क्षेत्र के सभी तीर्थंकरों के साधुओं के लिए शय्यातरपिण्ड ग्राह्य नहीं है। शय्यातर के मकान में रहने वाले, या उसके किसी दूसरे मकान में रहने वाले सभी साधुओं के लिए शय्यातरपिण्ड ग्राह्य नहीं है, क्योंकि ऐसा करने से महान् दोष लगता है। ____ अज्ञात भिक्षा का अपालन, उद्गम-सम्बन्धी दोषों की सम्भावना, अविमुक्ति, अलाघवता, दुर्लभशय्या और व्यवच्छेद- इन दोषों के कारण तीर्थंकरों ने शय्यातरपिण्ड का निषेध किया है। 1. अज्ञात भिक्षा का अपालन साधु के द्वारा बिना किसी परिचय के भोजन लाकर करना अपरिचित भिक्षा है। शय्यातर के यहाँ रहने के कारण साधु का शय्यातर से अतिपरिचय हो जाता है, इसलिए यदि शय्यातर के यहाँ से भोजन लाए, तो वह परिचित भिक्षा (ज्ञात भिक्षा) हो जाती है और अज्ञात भिक्षा का पालन नहीं हो पाता है। 2. उद्गम की अशुद्धि- उद्गम सम्बन्धी दोषों से युक्त भोजन अशुद्ध माना गया है। अनेक साधुओं के द्वारा भोजन, पानी आदि कार्यों के लिए उसके घर बार-बार जाने से शय्यातर उद्गम-सम्बन्धी दोषों में से कोई भी दोष लग सकता है। शय्यातर, साधु हमारे यहाँ ठहरे हैं- ऐसा जानकर उनके लिए भोजन भी बना सकता है। पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 17/17, 18 - पृ. - 298, 299 537 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy