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________________ अनवस्थाप्य-साधु में अभेद होने के कारण अनवस्थाप्य साधु का प्रायश्चित्त भी उपचार से अनवस्थाप्य है। आचार्य हरिभद्र ने प्रायश्चित्तविधि पंचाशक की तेईसवीं गाथा में पारांचिक-प्रायश्चित्त का स्वरूप स्पष्ट किया है। ___ जो साधु अन्योन्यकारिता, मूढ़ता (प्रमत्तता), दुष्टता और तीर्थंकर आदि की आशातना करने से तीव्र संक्लेश उत्पन्न होने पर जघन्य से छ: महीना और उत्कृष्ट से बारह वर्ष तक शास्त्रोक्त उपवास आदि तप से अतिचारों को पार कर लेता है, अर्थात् सम्पूर्ण अतिचारों से रहित होकर शुद्ध बन जाता है और फिर दीक्षा ग्रहण करता है, तो वह पारांचिक कहा जाता है। पारांचिक–साधु और प्रायश्चित्त में अभेद होने के कारण वह प्रायश्चित्त भी उपचार से पारांचिक कहा जाता है। पारांचिक के स्वरूप में मतान्तर- आचार्य हरिभद्र ने प्रायश्चित्तविधि-पंचाशक की चौबीसवीं गाथा में अन्य आचार्यों के मत को भी प्रतिपादित किया है। कई आचार्यों का पारांचिक-प्रायश्चित्त के विषय में ऐसा कथन है जो स्वलिंगभेद, चैत्यभेद, जिनप्रवचन का उपघात करने आदि से इस भव में और अन्य भव में चारित्र के अयोग्य होते हैं, वे पारांचिक कहलाते हैं। आचार्य हरिभद्र इस मत का स्वयं भी समर्थन करते हुए कहते हैं कि पारांचिक-प्रायश्चित्त के योग्य व्यक्ति इस भव में एवं अन्य निकट-भव में दीक्षा के अयोग्य रहता है। इसी मत पर आचार्य हरिभद्र ने प्रायश्चित्तविधि-पंचाशक की पच्चीसवीं गाथा में प्रस्तुत स्वरूप का प्रतिपादन इस प्रकार किया है परिणामों की विचित्रता से, अथवा मोहनीय आदि कर्मों का निरुपक्रम बन्ध होने से इस भव में और परभव में चारित्र की प्राप्ति की अयोग्यता हो सकती है, इसलिए अन्य आचार्यों का मत भी असंगत नहीं है, उचित ही है। 2 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 16/24 - पृ. - 283 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-16/25 - पृ. - 284 । पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 16/26, 27 – पृ. - 284 520 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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