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है, उसके परिणाम शुद्ध हैं, किन्तु यदि साधु या श्रावक सम्बन्धी प्रवृत्ति यदि अपनी मति के अनुसार करने की है तो वहाँ आज्ञा-भंग का दोष है। ____आचार्य हरिभद्र का कथन है कि कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो जिनेश्वर परमात्मा की पूजा तो करते हैं, पर वे परमात्मा की आज्ञा नहीं मानते हैं। वे यह नहीं समझ पाते कि एक तरफ तो वे भगवान् के आज्ञा पालक भक्त बनकर जिनेश्वर को अपना आराध्य मानते हैं और दूसरी तरफ उनकी आज्ञा का अतिक्रमण करके अपने आराध्य की आज्ञा का ही उल्लंघन करते हैं। ऐसा करना उचित नहीं है।
आचार्य हरिभद्र का कथन है कि शुद्धतापूर्वक जिनबिंब-निर्माण के पश्चात् निर्मित प्रतिमा की शुभ मुहूर्त में स्थापना करना चाहिए। परमात्मा का प्रवेश जिनालय में करवाना चाहिए और समुचित स्थान पर स्थापना करना चाहिए। जिनालय के चारों ओर की परिधि में शुद्धि बनाए रखना चाहिए तथा परमात्मा की अष्टद्रव्यों से पूजा करना चाहिए। जिनपूजा के पश्चात् इन्द्रादि देवों की, लोकपाल देवों की, सोमयज्ञ आदि दिक्पाल देवों की भी पूजा करना चाहिए।
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि देवताओं आदि की भी पूजा क्यों करना चाहिए? चूंकि इन्द्रादि कल्याणकारी कार्यों में निमित्त बनते हैं तथा दिक्पाल आदि देवाधिदेव के भक्त होने के कारण हमारे साधर्मिक बन्धु हैं, अतः प्रतिष्ठा के समय उनकी पूजा की जाती है। फिर, शुभ मुहूर्त में चन्दन आदि का विलेपन करके पूर्व निर्धारित स्थान पर मंगल गीतों के साथ जिनबिंब की प्रतिष्ठा (स्थापना) करना चाहिए।
जिनबिंब की पूजा-प्रतिष्ठा के बाद संघ-पूजा का विधान बताया है। संघ-पूजा की गरिमा को स्पष्ट करते हुए कहा है कि तीर्थंकर भी संघ को 'नमो तित्थस्स' कहकर नमस्कार करते हैं, अतः बिना भेद की बुद्धि से संघपूजा करना चाहिए। संघ-पूजा को सभी दानों में महादान माना है। संघ-पूजा का मुख्य फल मोक्ष ही है।
___ इस प्रकार जिनबिंब-निर्माण, स्थापना, संघपूजा के पश्चात् स्वजनों एवं साधर्मिक के प्रति उत्तम वात्सल्यभाव रखने की चर्चा की है और यह भी कहा गया है कि प्रतिष्ठा के प्रसंग पर आठ दिन उत्सवमहोत्सव के साथ प्रभु, संघ आदि की भक्ति करना चाहिए, तदुपरान्त नित्य चैत्यवन्दन आदि की विधि करना चाहिए, क्योंकि यह भक्ति पूजा ही संसार से मुक्ति दिलाती है। नवम पंचाशकयात्रा-विधि
आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत पंचाशक में यात्रा विधि का वर्णन किया है। यहाँ यात्रा से तात्पर्य मोक्षफलप्रदायक जिन-प्रतिमा की शोभायात्रा से है। हरिभद्र ने इसमें सम्यग्दर्शन के आठ अंगो का वर्णन किया है, क्योंकि ये जिनशासन-प्रभावना के हेतु हैं। जिनयात्रा को शासन-प्रभावना में मुख्य मानते हुए इस
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