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है। आचार्य हरिभद्र ने प्रायश्चित्तविधि में सोलहवीं से अठरहवीं तक की गाथाओं में सूक्ष्म से स्थूल, अर्थात् छोटे से छोटा शल्य (पाप) और चरम सीमा के शल्य (पाप) की किस प्रकार चिकित्सा है, उसका विशेष रूप से विश्लेषण इस प्रकार किया है
भिक्षाटन, स्वाध्याय आदि के निमित्त आने-जाने से होने वाला कोई अत्यन्त सूक्ष्म अतिचार आलोचना से ही शुद्ध हो जाता है। यह अतिचार प्रथम शल्य के समान है और उसकी आलोचना प्रथम शल्योद्धार के समान ही है। जिस प्रकार प्रथम शल्य में शल्योद्धार के अतिरिक्त और दूसरा कोई उपाय आवश्यक नहीं है, उसी प्रकार इसमें भी आलोचना के अतिरिक्त और कोई दूसरा प्रायश्चित्त करना आवश्यक नहीं है। समिति - गुप्ति आदि के भंग - रूप द्वितीय प्रकार का अतिचार, अरे मैं अचानक कैसे असमित और अगुप्त हो गया ? असमित और अगुप्त होने का कोई कारण ही नहीं है, इस प्रकार पश्चाताप सहित मिथ्या में दुष्कृतम् - रूप प्रतिक्रमण (चिकित्सा) से दोष दूर हो जाता है। यहाँ प्रतिक्रमण-रूप चिकित्सा द्वितीय प्रकार के शल्योद्धार में व्रणमर्दन - तुल्य है ।
इष्ट-अनिष्ट शब्दादि विषयों में केवल मन से राग-द्वेष करने वाला मुनि तृतीय व्रणमर्दन और कर्णमलपूरण के समान मिश्र ( आलोचना एवं प्रतिक्रमण) नामक चिकित्सा से शुद्ध होता है । अनेषणीय भोजनग्रहण - रूप अतिचार चतुर्थ शल्य के समान है । यह भोजन को अशुद्ध जानकर उसके त्यागने - रूप विवेक नाम की भाव-चिकित्सा से शुद्ध होता है।
पांचवें शल्य के समान अशुभ स्वप्न आदि-रूप कोई अतिचार कायोत्सर्ग ( क्रियानिषेध के समान) नाम की भावचिकित्सा से शुद्ध होता है। पृथ्वीकाय संघट्टन आदि अतिचार छठवें शल्य के समान हितमित भोजन या सरस भोजनत्याग-रूप नीवी आदि तपों की भावचिकित्सा से दूर होता है ।
तप से भी अतिचार-शल्य भावव्रण दूर न हो, तो उसे खराब मांसादि को काटने के समान दीक्षापर्याय के छेद-रूप भावचिकित्सा से दूर किया जाता है।
1 पंचाशक- प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 16/26, 17, 18 पृ. - 280,281
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