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________________ इस विषय को आचार्य हरिभद्र ने आलोचनाविधि पंचाशक की बयालीसवीं से पैंतालीसवीं तक की गाथाओं में स्पष्ट किया है शल्यसहित मरकर जीव संसार-रूपी घोर अरण्य (जंगल) में प्रवेश करते हैं और उसमें दीर्घकाल तक भटकते रहते हैं। जिनाज्ञा में अच्छी तरह स्थित जीव आलोचनापूर्वक सभी शल्यों को उखाड़कर, अर्थात् नष्ट कर सैकड़ों भवों में किए गए पापों की निर्जरा करके सिद्ध-स्थान (मोक्ष) को प्राप्त करते हैं। तीनों लोकों के मित्र जिनेन्द्र देव ने इस आलोचना (शल्योद्धरण) को अच्छी तरह से कहा है। यह सच्चे भावारोग्य (भावों की शुद्धता) रूप फल देने वाली है। मैं धन्य हूँ, जो मुझे यह आलोचना का अवसर प्राप्त हुआ है, इसलिए मैं निदान रहित होकर और सम्पूर्ण भव-शल्य को ज्ञानराशि गुरु के समक्ष विधिपूर्वक प्रकट करके अपने अपराधों की शुद्धि करूंगा। उक्त प्रकार का संवेगभाव उत्पन्न करने वाला चिंतन (संकल्प) करके यह संकल्प करना चाहिए कि मैं भविष्य में इस प्रकार का अपराध नहीं करूंगा और किए हुए अपराधों की आलोचना करूंगा। इसी बात का उल्लेख आचार्य हरिभद्र ने आलोचनाविधि-पंचाशक की छियालीसवीं गाथा में किया है, जो इस प्रकार है ___मरुक आदि के प्रसिद्ध दृष्टांतों से पाप को छिपाने (शल्य को रखने) से होने वाले दुष्परिणामों और उन पापों को प्रकट करने से होने वाले लाभरूप चिह्नों (कारणों) को जानकर उससे संवेग (वैराग्यभाव) उत्पन्न करके, अर्थात् संसार-सागर से भयभीत होकर भविष्य में इस प्रकार के अपराधों को कभी भी नहीं करूंगा- ऐसा दृढ़संकल्प करके आलोचना करना चाहिए। माया से मुक्त होकर आलोचना करना ही शल्यों को दूर करना है। 3 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 15/42, 43, 44, 45 - पृ. - 272, 273 | पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 15/46 - पृ. - 273 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 15/47 – पृ. - 274 509 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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