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दर्शनाचार के आठ प्रकार1. निःशंकित- जिनवचन में शंका नहीं करना चाहिए। 2. निष्कांक्षित- अन्य दर्शन, अथवा कर्मफल की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। 3. निर्विचिकित्सा- सदाचार के फल के प्रति शंका का अभाव। 4. अमूढदृष्टि- अन्य धर्मों का चमत्कार देखकर भ्रमित नहीं होना। 5. उपबृहणां- स्वधर्मी भाइयों के गुणों की प्रशंसा करना। 6. स्थिरीकरण- धर्म में प्रमाद करने वाले को धर्म में स्थिर करना। 7. वात्सल्य- साधर्मिक का सहयोग करना। 8. प्रभावना- श्रुतज्ञानादि से जैन-शासन की प्रभावना करना। दर्शन-सम्बन्धी आचार-व्यवहार दर्शनाचार कहलाता है। चारित्राचार के भेद
प्रणिधान का अर्थ है- मन की एकाग्रता और योग का अर्थ है- व्यापार। मन की एकाग्रतारूप व्यापार को प्रणिधान-योग कहा जाता है। एक अन्य अपेक्षा से योग, अर्थात् मन का निरोध। प्रणिधान (एकाग्रता) और मनोनिरोध से युक्त प्रणिधान-योगयुक्तता है।
जो जीव पाँच समितियों (ईर्या-समिति, भाषा-समिति, एषणा-समिति, आदान-भंडभत्त-निक्षेपण-समिति और उच्चार-प्रस्रवण-खेल-जल्ल-सिंघाण पारिट्ठावणिया-समिति) और तीन गुप्तियों (मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति) में प्रणिधान और योग से युक्त हैं, वे आठ प्रकार के चारित्राचार हैं, अथवा 'युक्त' शब्द का समिति और गुप्ति के साथ अन्वय करने पर अर्थ होगा- प्रणिधान और योग से युक्त, अर्थात् पाँच समिति और तीन गुप्ति से युक्त- ऐसा व्यक्ति आठ प्रकार के चारित्राचार वाला होता है। चारित्र से सम्बन्धित आचार-व्यवहार चारित्राचार होता है। तपाचार के भेद- जो जीव सर्वज्ञ प्ररूपित छ: प्रकार के आभ्यंतर और छ: प्रकार के बाह्य- इस प्रकार बारह प्रकार के तपों में खेदरहित, निःस्पृह रूप से प्रवृत्ति करता है, वह जीव बारह प्रकार का तपाचार है। यहाँ आचार और आचारवान् में अभेद होने के कारण जीव को ही तप कहा गया है। तप सम्बन्धी आचार तपाचार है।
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