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________________ संक्लेश से अशुभकर्मों का बन्ध होता है तथा दुष्कृत्य-सेवन के कारणभूत संक्लेशों से युक्त होकर आलोचना करने से भी संक्लेश ही अधिक होता है। कम संक्लेश से हुआ कर्मबन्ध अधिक संक्लेश से दूर नहीं होता। जिस प्रकार अल्पमलिन वस्त्र अधिक मलिन करने वाले रक्तादि पदार्थों से शुद्ध नहीं होता, उसी प्रकार कम संक्लेश से हुए कर्मबन्ध का उससे अधिक कर्मबन्ध करने वाले तथा जिनाज्ञा भंग करने वाले संक्लेश से नाश नहीं होता है। आलोचना करने की विधि- आचार्य हरिभद्र आलोचनाविधि-प्रकरण के अन्तर्गत आठवीं गाथा में लिखते हैं __ आलोचना के योग्य व्यक्ति को योग्य गुरु के पास आसेवनादि के क्रम से आकुट्टिका आदि भावपूर्वक जो दुष्कृत्य किया हो, उसका प्रकाशन करते हुए प्रशस्त द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से आलोचना करना चाहिए। विशेष- यह द्वारगाथा है। इसमें आलोचना योग्य व्यक्ति, योग्य गुरु, क्रम, भावप्रकाशन और द्रव्यादिशुद्धि- ये पाँच द्वार हैं। इनका विवेचन बारहवीं गाथा में क्रमशः किया जाएगा। सागारधर्माऽमृत के अनुसार- समाधिमरण का इच्छुक मनुष्य योग्य आलोचना के योग्य स्थान और काल में अपने द्वारा किए हुए सम्पूर्ण पापों को और व्रतों में लगे हुए अतिचारों को गुरु के प्रति निवेदन करके गुरु के द्वारा दिए हुए प्रायश्चित्त प्रतिक्रमादिविधि द्वारा अपने व्रतों की शुद्धि करे तथा माया, मिथ्यात्व और निदान- इन तीनों शल्यों को छोड़कर, निःशल्य होकर, अपने रत्नत्रय की आराधनारूप मार्ग में प्रवृत्ति करे। योग्य स्थान- जिनजन्म-कल्याणभूमि आदि तीर्थस्थान, अथवा जिनमन्दिर, मुनियों के रहने के योग्य स्थान एवं एकान्त स्थान, जहाँ क्षपक और निर्यापकाचार्य- दोनों ही हों, तीसरा कोई न हो। योग्य काल- प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन आदि से रहित काल ।' पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 15/8- पृ. - 259 2 सागारधमाऽमृत - पं. आशाधर-8/33 - पृ. -430 495 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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