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________________ तीनों लोकों के गुरु भगवान् महावीर को सम्यक् प्रकार से नमस्कार करके मैं साधुओं की आलोचनाविधि को संक्षेप में कहूँगा। - यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि आलोचना केवल साधुओं के लिए ही क्यों ? श्रावकों के लिए भी तो हो सकती है ? ___ इसका समाधान करते हुए श्रावक-सम्बन्धी आलोचनाविधि का वर्णन प्रथम पंचाशक की नौंवी गाथा में कर दिया गया है। आलोचना शब्द का अर्थ- आलोचनाविधि-पंचाशक के अन्तर्गत आचार्य हरिभद्र के अनुसार, अपने दृष्कृत्यों को गुरु के समक्ष विशुद्धभाव से बिना कुछ भी छिपाए पूर्ण रूप से प्रकाशित करना ही आलोचना है।' उत्तराध्ययनसूत्र की शान्त्याचार्य की बृहदवृत्ति के अनुसारगुरु के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करना आलोचना है।' आलोचना को विकटना, शोधि, सद्भाव-दर्शन, निन्दा, गर्हा, विकुट्टन, शाल्योहरण, प्रकाशन, आख्यान और प्रादुष्करण भी कहते हैं। आलोचना के ये नाम हमें उत्तराध्ययन की शान्त्याचार्यकृत् बृहद् टीका में प्राप्त होते हैं।' आलोचना से लाभ- आचार्य हरिभद्र आलोचनाविधि-पंचाशक के अन्तर्गत तीसरी और चौथी गाथाओं में आलोचना का फल बताते हुए कहते हैं आलोचना में अज्ञानता आदि के कारण दुष्कृत्यों के लिए पश्चाताप होता है, इसलिए आलोचना का परिणाम फलयुक्त जानना चाहिए। जिस प्रकार रागादि रूप चित्त की मलिनता के कारण दुष्कृत्यों का सेवन करने पर अशुभकर्म का बन्ध होता है, उसी प्रकार पश्चाताप्-रूपी चित्तविशुद्धि के कारण उस अशुभकर्म का क्षय होता है। सम्यक् विधि से एवं भावपूर्वक की गई आलोचना द्वारा चित्त की विशुद्धि अवश्य ही होती है। पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 15/2 - प्र. सं. -257 2 उत्तराध्ययन भान्त्याचार्यबृहवृत्ति – आलोयणमरिहंति आ मज्जा लोयणा गुरुसगासे – पृ. 3 उत्तराध्ययन भान्त्याचार्यबृहदवृत्ति - आलोयणमरिहंति आ मज्जा लोयणा गुरुसगासे - * पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 15/3, 4 - पृ. सं. - 257, 258 सं. 493 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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