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________________ करता है, तो अपने संयम को सुरक्षित रखता है । एक तरह से, विशुद्व आहार संयम का कवच है और यही कवच दुर्गति- - रूप दुर्घटना से बचा लेता है और सद्गति - रूप सिद्धत्व को प्राप्त कराने में यह सेतु रूप भी बन जाता है- यही बात आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक- प्रकरण के अंतर्गत पिण्डविधानविधि - पंचाशक की अंतिम (पचासवीं) गाथा में ' कही है और यह बताया है कि यह विशद्ध आहार चर्या किस प्रकार साधना के अंतिम लक्ष्य मोक्ष को पाने में सहयोगी बनती है। जो साधु इस पिण्ड - विधान को जानकर और आप्तवचन को प्रमाण मानकर संपूर्ण पिण्ड-दोषों को दूर करता है, वह अपनी संयम - यात्रा से ही संसार से मुक्ति प्राप्त कर लेता है । विशेष- मोक्ष के इच्छुक के लिए आप्तपुरुष के वचन ही शरण - रूप हैं, क्योंकि मोक्षार्थियों के लिए जो भी निर्देश हैं, जो भी कथन हैं, वह कथन आप्तवचन के अतिरिक्त अन्य किसी के नहीं हैं, अतः सर्वज्ञ के वचन ही मानकर सर्व दोषों से मुक्त होने का पुरुषार्थ करना चाहिए । पंचाशक - प्रकरण में शीलांगविधानविधि आचार्य हरिभद्र पंचाशक - प्रकरण के अंतर्गत शीलांगविधानविधि की प्रथम गाथा मेँ भगवान् महावीर को नमस्कार करके गुरु के उपदेष अनुसार शुभ-अनुष्ठान करने वाले श्रमणों के शील के भेदों की संक्षेप में चर्चा करने की बात कही है। शीलांगों की संख्या एवं परिभाषा - शील + अंग- इन दो शब्दों से बना हुआ शीलांग है । शील अर्थात चरित्र, अंग अर्थात् अवयव, श्रमणों का चारित्र ही अवयव है, अर्थात् साधुओं का शील ही अंग है, वह शीलांग है। आचार्य हरिभद्र ने शीलांगविधानविधि की दूसरी गाथा में शीलांगों की संख्या का विवरण दिया है। अखण्ड भावचारित्र वाले श्रमणों में अठारह हजार शीलांग ' पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 13/50- पृ. - 240 2 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 14/1 - पृ. - 241 1 पंचाशक- प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 14/ 22 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 14/3 - Jain Education International पृ. - 241 पृ. सं.. - 241 For Personal & Private Use Only 479 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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