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किस ढंग से भोजन लेना चाहिए। इस प्रकार के विवेक के अभाव में एक भिखारी की भीख भिक्षा नहीं हो सकती है। भिक्षा शब्द साधु के लिए ही उपयुक्त है, यही बात आचार्य हरिभद्र पंचाशक-प्रकरण के अन्तर्गत पिण्डविधानविधि की तैंतीसवीं गाथा में बताते हैं।
जिस प्रकार पिण्डविशुद्धि का वास्तविक अर्थ यति के आहार-ग्रहण में घटित होता है, उसी प्रकार भिक्षा शब्द का भी वास्तविक अर्थ यति की भिक्षा में ही घटित होता है, क्योंकि भिक्षा शब्द का अर्थ अनियतप्राप्ति (अलग-अलग घरों में से उन घरों की रसोई के परिमाण के अनुसार) है। दूसरों के द्वारा लाकर दी गई भिक्षा में अनियतप्राप्ति अर्थ घटित होना आवश्यक नहीं है।
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के अन्तर्गत् 'पिण्डविधानविधिपंचाशक' की चौंतीसवीं से छत्तीसवीं तक की गाथाओं में अन्य मतों की मान्यता का भी चित्रण किया है।
अन्य मत वाले यह मानते हैं कि निर्दोष पिण्ड असम्भव है, अतः यहाँ दूसरों की मान्यता का प्रतिपादन कर रहें हैं कि दूसरे कहते हैं कि श्रमण, साधु, पाखण्डी और यावदर्थिक के लिए किए गए औद्देशिक-मिश्रजात आदि आहार का त्याग करने से भिक्षाकुलों में भिक्षा के लिए घूमा ही नहीं जा सकता, उसमें भी विशिष्ट कुलों में तो कदापि नहीं, क्योंकि इस आर्यदेश में स्मृतिग्रन्थों का अनुसरण करने वाले गृहस्थ आहार बनाने सम्बन्धी सभी प्रवृत्तियाँ पुण्य के लिए करते हैं, अर्थात् प्रायः सभी लोग श्रमण को भिक्षा देने से होने वाले पुण्य के लिए भोजन तैयार करते हैं। इसकी सिद्धि स्मृतिवचन 'गुरुदत्त शेषं भुज्जीत', (अर्थात् गुरु को देने से बचा हुआ भोजन करना चाहिए)- इस शास्त्रनीति से होती है, इसलिए गृहस्थों के घरों में इस साधु के लिए यह भोजन देना चाहिए, इस प्रकार विशेष (श्रमण को देने के संकल्प-विशेष) से ही आहार तैयार होता है, जबकि साधु की भिक्षा अकृत-असंकल्पित है। विशेष रूप से (साधु को देने के संकल्प
। पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-13/33- पृ. -234 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 13/34, 35, 36 - पृ. - 234
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