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इसका समाधान आचार्य हरिभद्र पंचाशक-प्रकरण के अन्तर्गत पिण्डविधानविधि की तीसवीं गाथा में करते हैं
बयालीस दोषों से रहित शुद्ध आहार जिनेन्द्रदेवों ने साधुओं के लिए मान्य किया है। आहार-विशुद्धि परमार्थ से पिण्डविशुद्धि के अतिरिक्त भी अन्य क्रियाओं, जैसे- प्रतिलेखना, स्वाध्याय आदि में लीन रहने से ही होती है। प्रतिलेखना आदि क्रियाओं से रहित मुनि यदि बयालीस दोषों का त्याग करे, तो भी परमार्थ से शुद्ध पिण्ड नहीं होता है, क्योंकि मूलगुणों के बिना उत्तरगुण व्यर्थ हैं।
___मूलगुण-उत्तरगुण का पालन करते हुए जो साधु शुद्धपिण्ड को ग्रहण करता है, वही साधु वास्तव में साधु है। मूलगुण निश्चय को शुद्ध करता है और उत्तरगुण व्यवहार को शुद्ध करता है। उत्तरगुण से अन्य लोगों केलिए अनुमोदना के निमित्त बनते हैं, व्यवहार शुद्ध होता है, तो ही लोगों का चिन्तन शुद्ध बनता है कि ये साधु कितना कठोर संयम पाल रहें हैं। यदि मूलगुण न हों, तो यह चिन्तन भर के लिए शुभ है, पर साधु के लिए तो अशुभ ही होगा, क्योंकि मूलगुणों का अभाव है और मूलगुणों के अभाव में उत्तरगुण व्यर्थ हैं। एक तरह से उत्तरगुण हमारे लिए प्रदर्शन होगा, मात्र दिखावा होगा ? अतः मूलगुण और उत्तरगुण- दोनों का परस्पर संयोग ही परम शुद्धता को प्राप्त करवाता है। इस विषय का आगम से समर्थन आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत पंचाशक के अन्तर्गत पिण्डविधानविधि की एकतीसवीं गाथा में किया है।
सम्यक् प्रत्युपेक्षण, प्रमार्जन और सूत्रार्थ-पौरुषी करने के बाद भिक्षा का समय होने पर स्थित होकर अनासक्त-भाव से विधिपूर्वक आहार की गवेषणा करना चाहिए तथा साधु को पृथ्वी पर युगप्रमाण (साढ़े तीन हाथ) आगे दृष्टि डालकर चलना चाहिए और बीज, हरितकाय, प्राणी, सचित्त जल और सचित्त मिट्टी से बचकर चलना चाहिए, अर्थात् वनस्पति आदि पर नहीं चलना चाहिए। उपर्युक्त क्रियाओं में लीन रहने
। पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 13/30 - पृ. - 232 । पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 13/31 - पृ. सं. - 233 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 13/32 - प्र. सं. - 233
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