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________________ त्याग करता है, तो साधु के लिए शुद्ध आहार की गवेषणा में शुभ निमित्त बनता है, क्योंकि जब गृहस्थ रात्रिभोजन का त्यागी है, तो उसके गृह में भोजन स्वतः समय पर बन जाएगा, तो दोनों ओर से दोषों से बचा जा सकता है, अतः गृहस्थ को भी अपने कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक रहना चाहिए, साथ ही वह साधु को भी पूर्ण रूप से जागरुक रहकर विशुद्ध गवेषणा करनी ही चाहिए । आचार्य हरिभद्र ने पिण्डविधानविधि - पंचाशक की सत्ताइसवीं से लेकर उनतीसवीं तक की गाथाओं में एषणा के दोषों के स्वरूप का प्रतिपादन किया है । 1. शंकित - दोष का स्वरूप- आहार में आधाकर्मादि दोष होने की शंका हो, तो वह आहार शंकित - दोष वाला कहा जाएगा अथवा जिस आहार में जिस दोष की शंका हो, उस आहार को लेने से यह दोष लगता है । 2. ग्रक्षित - दोष का स्वरूप सचित्त पानी, पृथ्वी आदि से युक्त आहार लें, तो म्रक्षित - दोष लगता है । 3. निक्षिप्त- दोष का स्वरूप सचित्त वस्तु पर रखा हुआ आहार लेना निक्षिप्त-दोष है । 4. पिहित - दोष का स्वरूपहो, उसे लेना पिहित - दोष है । 5. संहृत - दोष का स्वरूपरखकर साधु को आहार देना संहृत - दोष है । 6. दायक - दोष का स्वरूपतो दायक- दोष लगता है। निम्नलिखित जीवभिक्षा देने Jain Education International 1. अव्यक्त 2. अप्रभु 3. स्थविर - ( ढंका हुआ) जो आहार सचित्त वस्तु आदि से ढंका जिसमें पहले सचित्त वस्तु रखी गई हो, ऐसे बर्तन में भिक्षा देने के लिए अयोग्य बालक आदि भिक्षा दें, अयोग्य हैं आठ वर्ष से कम उम्र वाला । जो घर का सदस्य न हो । अतिवृद्ध । For Personal & Private Use Only 467 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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