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विशेष- यदि दूषित आहार, शुद्ध आहार में पड़ जाए, बाद में उस दूषित आहार को निकाल लिया, तो भी बाकी का आहार अशुद्ध ही रहे, शुद्ध नहीं बने, तो यह अविशुद्धकोटि का दोष है। यदि दूषित आहार शुद्ध आहार में पड़ने के बाद उसमें से सम्पूर्ण दूषित आहार निकाल लिया जाए और शेष शुद्ध आहार शुद्ध बने, तो वह विशुद्धकोटि का दोष है, अर्थात्(1) जिन दोषों से दूषित आहार अलग कर देने पर शेष आहार कल्पनीय हो जाता है, वे दोष विशुद्धकोटि के हैं। (2) जिन दोषों से दूषित आहार अलग कर देने पर भी शेष आहार कल्पनीय नहीं बनता, वे दोष अविशुद्धकोटि के हैं।
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक प्रकरण के अन्तर्गत पिण्डविधानविधि की सत्रहवीं गाथा में उत्पादन शब्द के अर्थों एवं उसके पर्यायवाची शब्दों के स्वरूप का निर्देश किया है
उत्पादन शब्द का अर्थ है- प्राप्त करना।
सचेतन और अचेतन आदि वस्तु की अपेक्षा से उत्पादन अर्थात् आहार की प्राप्ति दो प्रकार की है, परन्तु यहाँ गृहस्थ के घर से आहार को प्राप्त करने का प्रकरण है, अतः उत्पादन-दोष गृहस्थ के घर आहारप्राप्ति से सम्बन्धित है।
उत्पादन को सम्पादन और निर्वर्तना भी कहते हैं, अर्थात् ये दोनों शब्द एक ही अर्थ को प्रतिपादित करते हैं।
आचार्य हरिभद्र ने पिण्डविधानविधि पंचाशक के अन्तर्गत अठारहवीं एवं उन्नीसवीं गाथाओं में उत्पादन के दोषों का विवरण दिया है, वह इस प्रकार है
___1. धात्री 2. दूती 3. निमित्त 4. आजीव 5. वनीपक 6. चिकित्सा 7. क्रोध 8. मान 9. माया 10. लोभ. 11. पूर्व–पश्चात् संस्तव 12. विद्या 13. मंत्र 14. चूर्ण 15.
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 13/17 - पृ. - 228 * पंचाशक-प्रकरण-आचार्य हरिभद्रसूरि- 13/18, 19- पृ. -228 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 13/20, 21, 22, 23, 24 - पृ. - 228, 229
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