SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 438
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की आज्ञा दी गई है। परमात्मा द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त का निरुपण आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत अध्याय की बत्तीसवीं एवं तेंतीसवीं गाथाओं के अन्तर्गत' किया है जिनेश्वर परमात्मा ने गीतार्थ के लिए एकाकी विहार करने का निर्देश दिया है, तो दूसरी ओर अगीतार्थ के गीतार्थ की निश्रा में विहार करने का प्रतिपादन किया है। इसके अतिरिक्त, तीसरे कोई विहार का निर्देश नहीं दिया गया है। एकाकी विहार सम्बंधी आज्ञा आगम-वचनानुसार गीतार्थ (विशिष्ट) साधु के लिए है, सामान्य साधुओं के लिए नहीं। गीतार्थ साधु के लिए भी एकाकी विहार की आज्ञा तब है, जब उसे संयम हेतु कोई सहयोगी साधु न मिले। अगीतार्थ के लिए सदैव अन्यों के साथ ही विहार करने की आज्ञा है, इसलिए प्रबुद्ध साधुओं को दशवैकालिक-सूत्र के– 'न वा लमेज्जा'- इस सूत्र का अर्थ समझना चाहिए व स्मरण में रखना चाहिए कि अन्य सहयोगी का संयोग न मिले, तो ही गीतार्थ साधु के लिए एकाकी विहार मान्य है, अन्यथा नहीं। अगीतार्थ तो गीतार्थ की निश्रा में ही विचरण करे एवं गीतार्थ भी अन्य सहयोगी साधुओं का संयोग न मिलने के कारण ही एकाकी विहार करें, अन्यथा नहीं। यहाँ विशेष शब्द का अर्थ स्पष्ट होना भी अति आवश्यक है, क्योंकि विशेष अर्थ के बिना सूत्रों के रहस्य को हर कोई नहीं समझ सकता है और अर्थ को सम्यक् प्रकार से समझे बिना ही सत्य को समझना अति दुष्कर है। इसी सन्दर्भ को स्पष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत पंचाशक की चौंतीसवीं गाथा में कहा है जिस सूत्र में जैसा कहा गया है, उसका वैसा ही अर्थ करना होता, शब्दानुसार ही अर्थ करना होता और उसके भावार्थ की कल्पना ही नहीं करनी होती, तो दृष्टि-सम्पन्न श्रुत के भद्रबाहु स्वामी आदि के द्वारा कालिक-सूत्रों की रचना करने के पश्चात् भी नियुक्ति आदि की रचना क्यों की गई होती ? केवल किसी भी सूत्र के शब्दार्थ से उसका अर्थ स्पष्ट नहीं होता है, अपितु उसका भावार्थ भी समझना पड़ता है, इसलिए आचार्य भद्रबाहु स्वामी आदि ने सूत्रों पर नियुक्ति की रचना की है, अतः इस 1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/32, 33 - पृ. - 193 1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/34 - पृ. - 194 418 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy