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गुरुकूल का त्याग करने वाले को उभयलोक से विरुद्ध प्रवृत्ति करने से कोई रोकने वाला नहीं होता है। चारित्र के फल की प्राप्तिस्वरूप, अर्थात् शीघ्र मोक्ष को पाने वाले साधुओं के लिए गुरु-सान्निध्य का त्याग साधुधर्म के अनुकूल नहीं है। क्योंकि आगम वचन हैं, गुरु-सान्निध्य प्राप्त करने वाला वह साधु श्रुतज्ञान आदि का पात्र बनता है और दर्शन और चारित्र में अत्यन्त दृढ़ होता है, अतः ऐसे साधुओं को धन्य माना गया है, जो गुरु-सान्निध्य का परित्याग नहीं करते हैं, क्योंकि गुरु–सान्निध्य में ही चारित्र का पूर्ण पालन होता है और क्षमा आदि गुणों की वृद्धि होती है।
आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत विषय का प्रतिपादन सत्रहवीं एवं अठारहवीं गाथाओं में किया है
गुरुकुल में रहने वाले मुनियों का यथाशक्ति आज्ञा-पालन से चारित्र का सम्पूर्ण पालन होता है। गुरु-सान्निध्य में रहते हुए यदि अस्वस्थता के कारण प्रतिलेखन आदि अनुष्ठानरूप बाहरी चारित्र अपूर्ण रह जाते हैं, तो भी भाव से चारित्र पूर्ण होता है, अतः गुरुकुलवास में रहने वाले का पूर्णतया चारित्र-पालन होता है, इसलिए गुरुकुलवास का त्याग नहीं करने का निर्देश देने के लिए कुलवधुओं आदि का दृष्टांत दिया गया है। जिस प्रकार कुलवधुएँ अनेक प्रतिकूलताओं के पश्चात् भी ससुराल (पति) गृह का त्याग नहीं करती हैं, उसी प्रकार साधु को भी अनेक प्रतिकूलताओं के उपस्थित होने पर भी गुरुकुलवास नहीं छोड़ना चाहिए तथा जिस प्रकार माता-पिता अपनी पुत्री को अनेक गुणों से समृद्ध करके कुलीन व्यक्ति से विवाह कर देते हैं, उसी प्रकार गुरु भी अपने शास्त्रज्ञ शिष्य को आचार्य बना देते हैं। गुरुकुल में विवेकपूर्वक रहने वाले साधुओं के क्षमा आदि धर्म की भी वृद्धि होती है। क्षमादि धर्म- आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण में साधुधर्मविधि-पंचाशक के अन्तर्गत क्षमादि दस प्रकार के धर्म का वर्णन प्रस्तुत उन्नीसवीं गाथा में किया है
1. क्षान्ति- क्रोध-निग्रह 2. मार्दव-मृदुता 3. आर्जव-सरलता 4. मुक्ति-लोभत्याग 5. तप-अनशन आदि 6. संयम-पृथ्वीकायादि जीवों का संरक्षण 7.
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/17, 18 - पृ. - 188 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/19 - पृ. - 189
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