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यदि वे अक्षत् समवसरण में जाएं, तो दीक्षार्थी योग्य एवं बाहर जाएं, तो वह अयोग्य होता है।
विधिमार्गप्रपा के अनुसार भी दीक्षार्थी की परीक्षाविधि उपयुक्त प्रकार से ही बताई गई है, अन्तर केवल इतना है कि पुष्प की जगह अक्षत् भी अर्पण किए जाते हैं।
योगप्रव्रज्याविधि के अनुसार शास्त्रों में यह विधि है, इसे स्वीकार किया गया है, पर इस विधि को तर्कसंगत नहीं माना गया है। उनका मानना है कि यह विधि तर्कसंगत प्रतीत नहीं होती, क्योंकि लक्ष्य का ध्यान नहीं रख पाने के कारण यदि चावल बाहर गिरते हैं, तो लोगों के सामने दीक्षार्थी उपहास का पात्र बनता है, उसके मन में वहम भी रह जाता है, वह हीन भावों से भर जाता है। इस कारण वर्तमान में यह विधि नहीं कराई जाती है। कई पुराने लोगों द्वारा यह कहा जाता है कि महाराज ! आप यह विधि क्यों नहीं कराते ? वास्तव में यह नहीं कराने का विधान भी शास्त्र-आधारित ही है। विधिमार्गप्रपा का यह विधान द्रष्टव्य है
'जे पुण परंपरागय सावय कुलप्पसूया तेसिं परिक्खा करेणन नियमो', अर्थात् जो परंपरागत श्रावक-कुल में जन्मा है, उसके लिए परीक्षा का नियम नहीं है।'
श्रमणधर्म के अन्तर्गत गुरुदीक्षा देने के पूर्व या बड़ी दीक्षा देने के पूर्व परीक्षा लें- यह विवरण धर्मसंग्रह-सारोद्धार में प्राप्त है एवं दीक्षार्थी द्वारा अक्षत उछालने की विधि भी प्राप्त है, परन्तु शुभगति या अशुभगति की परीक्षा के लिए है- ऐसा कोई विवरण प्राप्त नहीं है।
आचार्य हरिभद्र ने दीक्षार्थी की योग्यता व अयोग्यता के निर्णय हेतु सत्ताईसवीं गाथा में चर्चा की है
विधिमार्ग प्रपा - जिनप्रभुसूरि - 13 प्रव्रज्याविधि - पृ. - 97
'योग-प्रव्रज्याविधि - संपादक, उपाध्याय मणिप्रभसागर - भूमिका – पृ. - 8, 9
श्रमणधर्म, धर्मसंग्रह सारोद्धार – महोपाध्याय मानविजयजी - भाग-2 भूमिका - पृ. - 19, 50 3 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-2/27 - पृ. -29
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