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________________ हुआ हो, वही दीक्षा का अधिकारी है। दीक्षा के प्रति अनुराग आदि के विषय में विशेष रूप से प्रतिपादन करते हुए उन्होंने पांचवीं एवं छठवीं गाथा में कहा है पयतीए सोऊण व दह्ण व केइ दिक्खिए जीवे । मग्गं समायरंते धम्मियजण बहुमए निच्वं ।। चारित्रमोहनीय-कर्मों के क्षयोपशम से स्वतः जिनदीक्षा के प्रति रुचि उत्पन्न होती है, अथवा वैराग्य-प्रतिपादक प्रवचन श्रवण कर, अथवा दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप मार्ग का अनुसरण करने वाले श्रमण को देखकर, अथवा रत्नत्रय के उपासक श्रावक की साधना को देखकर जो मन में चिन्तन करता है कि इस भव-समुद्र को पार कराने में समर्थ दीक्षारूपी महायान को कब और कैसे प्राप्त करुंगा- ऐसा चिन्तन ही दीक्षा के प्रति अनुराग बढ़ाता है। यह दीक्षा सांसारिक सुख की अपेक्षा से रहित है, अर्थात् यह दीक्षा सुख की आकांक्षा से निरपेक्ष है एवं जीवन-पर्यन्त के लिए होती है। शास्त्रों में कहा गया है कि दीक्षा के प्रति जब अनुराग उत्पन्न हो गया हो, तो यह अनुराग इतना दृढ़ होना चाहिए कि विघ्नों का अभाव हो या विघ्नों का आगमन हो, लेकिन दीक्षा के प्रति आन्तरिक–अनुराग कम नहीं होना चाहिए, अर्थात् स्खलित नहीं होना चाहिए, तब ही दीक्षा के प्रति सही अनुराग होता है। इस प्रकार कौन दीक्षा की योग्यता को प्राप्त कर सकता है, इसे आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत प्रकरण की सातवीं गाथा में स्पष्ट किया है। आचार्य लोक-विरुद्ध कार्यों के विषय में प्रतिपादन करते हुए आठवीं से दसवीं गाथाओं में कहते हैं किसी की भी निन्दा करना लोक-विरुद्ध है, फिर गुण-सम्पन्न लोगों की निन्दा तो और भी अधिक लोक-विरुद्ध है। सरल चित्त वाले साधकों द्वारा की गई धर्माराधना का उपहास करना, अथवा लोक-सम्मान्य राजा, मन्त्री, श्रेष्ठी इत्यादि का पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-2/7 - पृ. - 23 2 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-2/8.9. 10 - पृ. - 23,24 'पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-2/11 - पृ. - 24 390 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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