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________________ श्रावक की चतुर्थ कक्षा पौषध-प्रतिमा की है। पूर्व में श्रावक अष्टमी-चतुर्दशी को पौषध करते हुए इस प्रतिमा का पालन करते थे, वर्तमान में भी श्रावक पर्वतिथियों में भी इस प्रतिमा का पालन करते हैं। __ श्रावक-जीवन की पांचवीं कक्षा कायोत्सर्ग की है। पूर्व में श्रावक इस प्रतिमा का पालन अष्टमी-चतुर्दशी को रात्रि में कायोत्सर्ग की साधना करके करते थे। इस प्रतिमा में कुछ समय तक शारीरिक क्रियाओं का त्याग किया जाता था, अर्थात् शरीर के प्रति मेरापन या ममत्व-भाव से मुक्त होने का अभ्यास किया जाता है। श्रावक इस पांचवी प्रतिमा का पालन अष्टमी-चतुर्दशी आदि पर्व के दिनों में करते हुए कायोत्सर्ग की साधना द्वारा शरीर के प्रति ममत्व को कम कर सकता है। श्रावक छठवीं भूमिका में जब प्रवेश करता है, तो अब्रह्म-सेवन का परित्याग करता है। वर्तमान में भी यह प्रतिमा सम्भव है कि साधक शरीर की अशुचिता को समझकर इस प्रतिमा के अनुरूप आजीवन अब्रह्म (काम-भोग) के सेवन का त्याग कर सकता है। सातवीं कक्षा में श्रावक सचित्त का त्याग करता है, अर्थात् कच्चा जल, नमक, फल, अनाज एवं कच्ची सब्जी, वनस्पति, फल आदि के सेवन का त्याग करता है। वर्तमान में भी श्रावक इस प्रतिमा का पालन करते हैं। जैनधर्म एवं वैज्ञानिक-दृष्टिकोण से भी वनस्पति जीवन है, अतः श्रावक को सचित्त का, अर्थात् सजीव वस्तुओं का त्याग करना ही चाहिए। यदि श्रावक अचित फल, सब्जी, जल आदि का उपयोग करता है, तो साधु-साध्वी को भी कल्पनीय-आहार उपलब्ध हो सकता है। आठवीं कक्षा में आरम्भ-त्याग की बात बताई गई है, जिसका तात्पर्य हैसभीप्रकार के व्यापार आदि से मुक्त होकर आत्म-साधना करना। ऐसी साधना वर्तमान में चाहे दुरूह हो, किन्तु श्रावक के लिए सम्भव है। इसमें श्रावक योग्य पुत्रादि से सांसारिक-कार्य करवाता है और स्वयं संसार के व्यापार का परित्याग कर वीतराग के मार्ग में प्रवत्त होता हुआ संसार के प्रति रहे हुए राग को कम करने का अभ्यास करता है। 382 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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