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है, उसे उद्घाटित नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह सत्याणुव्रत का उल्लंघन ही है। श्रावक के अणुव्रतों में तीसरा क्रम अस्तेय-अणुव्रत कर है। आज विश्व में व्यापार के क्षेत्र में और कर-भुगतान के क्षेत्र में जो अप्रामाणिकता बरती जा रही है, उस पर अस्तेय अणुव्रत के द्वारा ही नियन्त्रण किया जा सकता है।
आज हम उपभोक्तावादी संस्कृति में जी रहे हैं और मान रहें है कि भोग-उपभोग की साधन-सामग्री का जितना विकास और प्रचुरता होगी, उतनी ही मानव-जीवन की सार्थकता होगी, किन्तु आज हम उपभोक्तावादी संस्कृति के दुष्परिणामों को स्पष्ट रूप से देख रहे हैं कि इस उपभोगवादी जीवनदृष्टि ने केवल व्यक्ति को, अपितु सम्पूर्ण समाज को भी एक दुष्चक्र के घेरे में ग्रसित कर रखा है। जैन-आचार-संहिता में उपभोक्तावादी संस्कृति से बचने के लिए स्वपत्नी-संतोषव्रत, परिग्रह-परिमाणव्रत, दिशा-परिमाणव्रत, उपभोग-परिभोग-परिमाणव्रत- ऐसे चार व्रतों की व्यवस्था की गई है। इन चारों व्रतों की प्रासंगिकता का कुछ निर्देश श्रावकधर्मविधि में भी किया गया है।
__जहाँ तक व्यक्ति-साधना का प्रश्न है, उसमें सामायिक, देशावगासिक पौषध और अतिथि–संविभाग-व्रत की व्यवस्था की गई है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि आचार्य हरिभद्र के पंचाशक-प्रकरण में जो श्रावकधर्मविधि-प्रकरण है और उसमें एक श्रावक के लिए करणीय और अकरणीय का जो विवेचन किया गया है, उसकी प्रासंगिकता स्पष्ट होती है। उपासक-प्रतिमाविधि- प्रत्येक मानव विकास की ओर बढ़ना चाहता है। फिर वह विकास चाहे आध्यात्मिक हो या भौतिक, ज्ञान के क्षेत्र में हो या व्यापार के क्षेत्र में हो। सभी के मन की एक ही चाह होती है कि उसके जीवन में विकास हो, तो वे विकास के पथ पर निरन्तर आगे बढ़ते रहें हैं, किन्तु इस विकास यात्रा में यह सोचना अवश्य है कि शान्ति और संतोष किसे प्राप्त होता है ? सफलता किसके चरण चूमती है। भौतिक-विकास की चरम सीमा पर भी व्यक्ति बहुत अशान्त और दुःखी है। सुख एवं शान्ति तो आध्यात्मिक-विकास से ही सम्भव है। इस आध्यात्मिक-विकास की यात्रा का
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