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________________ शुभ-अनुष्ठान में बाधक रागादि दोषों के निरोध में और सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो - ऐसे धर्मकार्यों में चित्त लगाना चाहिए, अथवा साधुओं के वैराग्यभाव सम्बन्धी विचारणा करना चाहिए, क्योंकि इस प्रकार की विचारणा संवेगरूप रसायन देती है, अर्थात् ऐसे चिन्तन से संसार से भय अथवा मोक्ष से अनुराग उत्पन्न होता है। आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक - प्रकरण के श्रावक धर्मविधि - प्रकरण के अर्न्तगत प्रथम अध्याय की पूर्णता करते हुए अन्तिम गाथा में कहा है इस प्रकार उपर्युक्त विधि से श्रावक धर्म का अनुष्ठान करने वाले श्रावक का भव-विरह, अर्थात् संसार परिभ्रमण अल्प होने से उसे चारित्र लेने का परिणाम उत्पन्न होता है गोसे भणिओ य वि ही इय अणवरयं तु चिट्ठमाणस्स । भवविरहबीयभूओ जायइ चारित्तपरिणामो । । इस प्रकार, आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक - प्रकरण के श्रावकधर्मविधि के माध्यम से श्रावक की दिनचर्या कैसी होना चाहिए, श्रावक का चिन्तन कैसा होना चाहिए, श्रावक को किस प्रकार से सम्यक्त्व एवं व्रत आदि का ग्रहण करके उनका परिपालन करना चाहिए, उसमें देव गुरु एवं धर्म के प्रति कितना समर्पण एवं भक्ति होना चाहिए- ऐसी अनेक सूक्ष्म-से-सूक्ष्म बातें बताकर श्रावक को श्रेष्ठ प्रकार से जीवन जीने की प्रेरणा दी है, अतः श्रावक को चाहिए कि वह श्रावक की भूमिका अदा करते हुए संयम के मार्ग में बढ़ने के लिए विशेष रूप से आत्म-‍ - शुद्धि के लिए ग्यारह प्रतिमाओं की विधिपूर्वक आराधना करे, जिसका विवेचन आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक के प्रकरण में किया है, जिसका विवरण आगे प्रस्तुत किया जा रहा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य हरिभद्र ने श्रावक के द्वादश व्रतों की विवेचना करते हुए न केवल परम्परागत से माने जाने वाले व्रत के स्वरूप का विवेचन किया है, अपितु उस व्रत के स्वरूप की क्या उपयोगिता है - इसकी भी चर्चा की है। न केवल इतना ही, अपितु उस व्रत के सम्बन्ध में जन-समाज में किस प्रकार की भ्रांतियां Jain Education International For Personal & Private Use Only 341 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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