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तथा तेरहवें पद की व्याख्या में जीव और अजीव के विविध परिणामों का निरूपण किया गया है। आगे के पदों के विवेचन में कषाय, इन्द्रिय, प्रयोग, लेश्या, कायस्थिति, अन्तक्रिया, अवगाहना, संस्थान आदि क्रिया, कर्मप्रकृति, कर्मबन्ध, आहार-परिणाम, उपयोग, पश्यता, संज्ञा, संयम, अवधि, प्रविचार, वेदना और समुत्थान का विशेष एवं विस्तार से वर्णन किया गया है। तीसवें पद में उपयोग और पश्यता की भेद-रेखा स्पष्ट करते हुए साकार उपयोग के आठ भेद व साकार पश्यता के छः भेद दर्शाए हैं।
इन सात आगमिक-व्याख्याओं के अतिरिक्त पाक्षितसूत्र की वृत्ति, पंचसूत्रवृत्ति, आवश्यक बृहत् वृत्ति तथा पिण्डनियुक्तिवृत्ति के लेखक भी आचार्य हरिभद्र माने जाते हैं, परन्तु प्रथम तीन वृत्तियाँ उपलब्ध नहीं हैं। पिण्डनियुक्तिटीका से स्पष्ट होता है कि टीका का प्रारम्भ हरिभद्र ने किया था, किन्तु वे इसे पूर्ण नहीं कर पाए, अतः यह मानना ही उचित है कि शेष टीका किसी वीराचार्य द्वारा लिखित है।
आचार्य हरिभद्र ने आगमिक-व्याख्या-ग्रन्थों के अतिरिक्त विपुल संख्या में अनेक विषयों पर स्वतंत्र ग्रन्थों की रचनाएं की हैं, जो इस प्रकार हैं -
स्वतंत्र ग्रन्थ (क) प्रकरण ग्रन्थ
हरिभद्रसूरि के चार प्रकरण ग्रन्थ वर्तमान में उपलब्ध हैं -
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अष्टक-प्रकरण षोडशक-प्रकरण विंशति-विंशिका पंचाशक-प्रकरण
(4)
1. अष्टक-प्रकरण:
इस ग्रंथ में आठ-आठ श्लोकों के 32 प्रकरण हैं, जो निम्नलिखित हैं(1) महादेवाष्टक
स्नानाष्टक पूजाष्टक
अग्निकारिकाष्टक (5) त्रिविध भिक्षाष्टक (6) सर्वसम्पत्करिभिक्षाष्टक (7) प्रच्छन्नभोजाष्टक (8)
प्रत्याख्यानाष्टक
ज्ञानाष्टक (10) वैराग्याष्टक (11) तपाष्टक
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