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________________ पाऊंगी/पाऊंगा , इतने पदार्थ बनाएँ, यदि मैं नहीं खाऊं, तो इनके बनाने का कोई अर्थ नहीं । कई बार ऐसा भी होता है कि कई पदार्थ के साधू को त्याग होते हैं, कई पदार्थ शारीरिक-दृष्टि से वर्जनीय होते हैं । ऐसी स्थिति में भी हठाग्रह चलता है , यहां तक कि श्रावक-श्राविका गुस्सा भी करने लगते हैं – यह उचित नहीं है । ____ महापुरूषों ने इसे अतिथि–संविभाग नहीं कहा है। अतिथि–संविभाग तो ऐसा होना चाहिए, जैसे- नयसार ने सुसाधुओं को शुद्ध आहार भावोल्लास एवं सद्भावनाओं के साथ दिया, अतः नयसार की तरह साधु को आहार प्रदान करते समय सद्भावना ,उल्लास, विवेक एवं समयज्ञ हो, तभी हम सम्यक्त्व के निकट पहुँच सकते है एवं हमारा अतिथि–संविभागवत सफल हो सकता है । उपासकदशांगटीका के अनुसार उचित रूप से मुनि आदि चारित्रसम्पन्न योग्य पात्रों को अन्न वस्त्र आदि यथाशक्ति देना अतिथि-संविभागवत है ।' तत्त्वार्थ-सूत्र के अनुसार न्याय से उपार्जित और अपेक्षित भोजन-पानी आदि योग्य वस्तुओं को शुद्ध भक्तिभावपूर्वक सुपात्र को इस प्रकार दान देना कि उभय पक्ष का हित हो- यह अतिथि–संविभागवत है । अतिचार- आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण में प्रथम अध्याय की बत्तीसवीं गाथा में अतिथि संविभागवत में लगने वाले अतिचारों का वर्णन किया है, जिसमें यही रहस्य छुपा हुआ है कि प्रस्तुत व्रत को सुरक्षित रखने के लिए अत्यन्त उल्लासभाव अपेक्षित है और जहाँ उल्लासभाव में गिरावट आई, वहीं अतिचार ही नहीं, अनाचार भी हो जाता है, क्योंकि जहाँ कोई कार्य भूल से हो जाए, तो वह अतिचार और कपट-माया करके या जान-बूझकर गलती करके किया जाए, तो वह अनाचार हो जाता है। आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण में अतिथि–संविभागवत दूषित न हो, इस हेतु निम्न अतिचारों का प्रतिपादन किया है सच्चित्तणिक्खिवणयं वज्जइ सच्चितपिहणयं चेव। 1 उपासकदशांगटीका - आ. अभयदेवसूरि-1 - पृ. -54 ' तत्त्वार्थ-सूत्र - आ. उमास्वाति-7/16 - पृ. - 182 324 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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