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________________ नन्दीवृत्ति- यह वृत्ति नन्दीचूर्णि का मूल रूपान्तर है। इस वृत्ति में उन्हीं विषयों का प्रायः विवेचन किया गया है, जो नन्दीचूर्णि में हैं। इसके शुभारम्भ में ही 'नन्दी' शब्द के अर्थ की व्याख्या है, उसके पश्चात् जिन, महावीर और संघ की स्तुति की प्रभावकता का विवेचन करते हुए तीर्थंकरावलिका, गणधरावलिका और स्थरावलिका का निरूपण किया है। नन्दीवृत्ति में ज्ञान की महिमा प्रकट करने के साथ-साथ उसके अध्ययन हेतु अपेक्षित योग्यता-अयोग्यता पर भी विचार किया गया है। इसके पश्चात् तीन प्रकार की पर्षद का विवेचन, ज्ञान के भेद-प्रभेद स्वरूप आदि का निरूपण किया है। __केवलज्ञान- केवलदर्शन के क्रमिक उपयोग का विवेचन करते हुए युगपदवाद के समर्थक सिद्धसेन आदि का, क्रमिकत्व के पोषक जिनभद्रगणि आदि का तथा अभेदवाद के प्रवर्तक आचार्य वृद्धा का उल्लेख है। मेरी दृष्टि में इसमें वर्णित “सिद्धसेन" सिद्धसेन दिवाकर से भिन्न होना चाहिए, क्योंकि सिद्धसेन दिवाकर तीसरे मत अभेदवाद के प्रवर्तक हैं। द्वितीयभव क्रमिकत्व के पोषक जिनभद्र आदि को सिद्धान्तवादी कहा गया है। अन्त में, श्रुत के श्रवण की विधि और व्याख्या की विधि बताते हुए आचार्य हरिभद्र ने नन्दी अध्ययन सम्पन्न किया है। अनुयोगद्वारवृत्ति- यह टीका अनुयोगद्वार की चूर्णि की शैली पर लिखी गई है। यह टीका नन्दीवृत्ति के बाद की कृति है। इस वृत्ति में श्रुतनिक्षेप-पद्धति से व्याख्यान किया है। नाम, स्थापना, द्रव्य एवं भाव के स्वरूप का सूक्ष्मतम प्रतिपादन किया है। स्कन्ध, उपक्रम आदि का विवरणात्मक स्वरूप स्पष्ट करते हुए आनुपूर्वी का विस्तृत विवेचन किया है। इसके पश्चात् द्विनाम, त्रिनाम से लेकर दशनाम तक का व्याख्यान प्रस्तुत किया गया है। प्रमाण का विवेचन करते हुए विविध अंगुलों के स्वरूप का विवरण तथा समय के प्रतिपादन में पल्योपम का विस्तृत वर्णन किया है। शरीर पंचम के पश्चात् भावप्रमाण में प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, औपम्य, दर्शन-चारित्र, संख्या और नय का उल्लेख किया है। नय का पुनः जिक्र करते हुए ज्ञाननय और क्रियानय के स्वरूप का निरूपण किया गया है, साथ ही ज्ञान और क्रिया की उपयोगिता को भी सिद्ध किया है। जिवाभिगम- जिवाभिगमसूत्र पर आचार्य मलयगिरि कृत एकमात्र वृत्ति उपलब्ध है, जिसमें अनेक न्थ-रचयिता के नाम हैं। उसमें हरिभद्रकृत तत्त्वार्थटीका का भी उल्लेख किया है। हालांकि जिवाभिगम पर सम्पूर्ण वृत्ति का विवरण नहीं है, पर लघु रूप में 1192 गाथाएँ हैं। इसके अपरनाम के रूप में प्रवेशवृत्ति का उल्लेख उपलब्ध है। 36 जिनरत्नकोश, हरिदासोदर वेलंकर भंडारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्युट पूना, पृ. 144 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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