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के करने योग्य नहीं है, अतः व्रतधारी एसे व्यापार का त्याग करे। जैन-आचार्यों ने लुहार, कुम्हार आदि कर्म को अंगार-कर्म में लिया है, पर डॉ. सागरमल जैन के अनुसार जंगल में आग लगाकर कृषियोग्य भूमि तैयार करना भी अंगार-कर्म है। 2. वन-कर्म- लकड़ी काटकर बेचना, वनस्पति, खेती, बाग, बांस, पत्ते, फूल आदि बेचकर तथा चक्की चलाकर आजीविका चलाने वाले को वन-कर्म कहा है, जो श्रावकों के लिए वर्जनीय है। 3. शकट-कर्म- बैलगाड़ी, रथ, मोटर-गाड़ी, रिक्शा आदि बनाकर बेचने को, अथवा उन्हें भाड़े से चलाने को शकट-जीविका मानी है, जो श्रावकों के करने योग्य नहीं है। 4. भाटक-कर्म- पशु, बैल, अश्व आदि, मकान-जमीन आदि को भाड़े पर देकर व्यापार करने को भाटक-कर्म कहते हैं, जो श्रावक के लिए त्याज्य है। 5. स्फोटक-कर्म- खदान खुदवाना, जमीन को चीरना, सरोवर, कुएँ, सुरंग, खाई आदि को खुदवाना, पत्थर, चट्टान आदि तुड़वाने आदि के व्यापार को 'स्फोटक-कर्म' कहते हैं, जो श्रावक के लिए व्यापार हेतु अनुचित है। 6. दन्त-वाणिज्य- हाथीदांत, उल्लू के नाखून, शंख, कौड़ी, मोती, सिंहादि का चर्म आदि के व्यापार को 'दन्तवाणिज्यकर्म' कहते हैं। यह व्यापार भी श्रावकों के लिए उचित नहीं है। 7. लाक्ष-वाणिज्य- लाख, गोंद, साबुन, खार, चपड़ी, मेनसील, नील, धातकी के फल, छाल आदि का व्यापार लाक्षवाणिज्य है। यह व्यापार श्रावकों के लिए त्याग करने योग्य
8. रस-वाणिज्य- मदिरा, मधु, मक्खन, मांस, चर्बी आदि के व्यापार को 'रसवाणिज्यकर्म' कहते हैं। यह व्यापार श्रावकों के लिए वर्जित है। 9. केश-वाणिज्य- दास-दासी, मनुष्य, पशु-पक्षी का, अथवा उनके बालों का क्रय-विक्रय करने को ‘केशवाणिज्यकर्म' कहते हैं। यह व्यापार श्रावकों के लिए अयोग्य
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