SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 282
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साथ ही व्रत भंग भी होगा - यह मानकर चलना चाहिए, क्योंकि पंचाशक - प्रकरण में आचार्य हरिभद्र ने स्पष्ट कहा है कि इस तरह दे देने पर भी वह चांदी-सोना उसी का होता है, जो रखने को देता है, अतः इस प्रकार की प्रवृत्ति नहीं करें। इस प्रकार की प्रवृत्ति से तृप्ति अशक्य है । यह कथा प्रसिद्ध है कि सुभूम चक्रवर्ती छः खण्ड को जीत लेने पर भी तृप्त नहीं हो सका। मम्मण सेठ अरबों की सम्पत्ति पाकर भी संतोष का अनुभव न कर सका। रावण को सुन्दर - सुन्दर अप्सराओं के बीच भी तृप्ति नहीं मिल पाई । वास्तव में, जैसे इंधन डालने से अग्नि शांत नहीं होती, उसी प्रकार इच्छाओं की पूर्ति से इच्छाओं की तृप्ति नहीं होती । तृप्ति के ही सूत्र है, "सन्तोष-धन" । जब सनतोष आभूषण बन जाएगा, उस दिन व्यक्ति तृप्त हो जाएगा। फिर वह अपने धंधे में किसी प्रकार की गली नहीं निकालेगा, अर्थात् अनुचित बचाव का प्रयत्न नहीं करेगा। संतोषरूपी धन प्राप्त हो जाने पर उसकी धन जोड़ने की भूख समाप्त हो जाएगी । संतोष जितना कम होगा, संताप उतना अधिक होगा। संतोष में सुख है, इच्छा में दुःख है । मम्मण सेठ दुःखी था और पुणिया श्रावक सुखी, क्योंकि मम्मण सेठ में इच्छा थी, व पुणिया श्रावक में संतोष था । आवश्यकता का सम्बन्ध शरीर से है, व इच्छाओं का सम्बन्ध मन से, इसलिए आवश्यकता सीमित है, इच्छा असीमित । सीमित की पूर्णता सम्भव है, पर असीम की नहीं, अतः सीमित आवश्यकता के साथ जीने वाला कभी भी व्रतों का अतिक्रमण नहीं करेगा ।' उपासकदशांगटीका में अभयदेवसूरि ने सोने और चांदी की जितनी मर्यादा निश्चित की है, उसका उल्लंघन करने को हिरण्य - सुवर्ण - परिमाणातिक्रम माना है । 2 तत्त्वाथ - सूत्र में भी पंचाशक के समान वर्णन है । ' पंचाशक - प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि - 1 / 18 - पृ. - 7 2 उपासकदशांगटीका - आ. अभयदेवसूरि- 1 /49 - पृ. - 45 तत्त्वार्थसूत्र - आ. उमास्वाति - 7/24 4 पंचाशक - प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 1/18 - पृ. - 7 ' उपासकदशांग टीका - आ. अभयदेवसूरि- 1 /49- पृ. - 45 Jain Education International For Personal & Private Use Only 263 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy