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अपनी ही स्त्री में संतोष रखना स्वदार संतोषव्रत है। इसे ब्रह्मचर्याणुव्रत, अथवा स्वपत्नी-संतोषव्रत भी कहते हैं। श्रावक अपने इस व्रत को सुरक्षित रखने के लिए पंचाशक-प्रकरण में बताए ब्रह्मचर्याणुव्रत के पाँचों अतिचारों का त्याग करे।
इन अतिचारों का वर्जन करने वाला श्रावक ही अपने व्रत को बिना दूषित किए स्वच्छ रख सकेगा। पंचाशक-प्रकरण के अनुसार प्रथम अतिचार में वेश्यागमन का निषेध किया है। यदि स्वस्त्री से सन्तोष न होने पर यह विचार कर वेश्यागमन करता है कि मैंने परस्त्री का त्याग किया है, वेश्या का त्याग नहीं किया है, अतः वेश्या के साथ सम्भोग करने से मेरा अणुव्रत दूषित नहीं होगा,
परन्तु इससे श्रावक का चौथा व्रत तो कलुषित एवं खण्डित होता ही है।
श्रावक अपनी पत्नी से इच्छा पूर्ण न होने पर वासना की पूर्ति के लिए यह कल्पना करे कि मैंने परस्त्री का त्याग किया है, पर अनाथ, त्यक्ता, विधवा आदि स्त्रियों का त्याग नहीं किया है, अतः उन स्त्रियों को भोग सकता हूँ, इससे भी वह अपने व्रत को दूषित या खण्डित करता है।
श्रावक अपनी कामपूर्ति के लिए यह चिन्तन करते हुए कि मेरा व्रत हैपरस्त्री के साथ सम्भोग नहीं करने का, पर अनंगक्रीड़ा का त्याग नहीं है। यह मानकर यदि वह अनंगक्रीड़ा करे, तो उसका व्रत दूषित होता है और ब्रह्मचर्याणुव्रत के भंग का दोष भी लगता है।
अणुव्रती श्रावक यदि अन्यों का विवाह करवाता है, तो भी उसे अतिचार लगता है, क्योंकि किसी का सम्बन्ध करना मैथुन-प्रवृत्ति को पुष्ट करना है।
उपासकदशांग के अनुसार अपनी सन्तानों का विवाह करना तो अनिवार्य है, पर दूसरों का विवाह करवाना ब्रह्मचर्य-साधना की दृष्टि से उपयुक्त नहीं है। ऐसा करना ब्रह्मचर्याणुव्रत का अतिचार है। किन्हीं-किन्हीं आचार्यों ने अपना दूसरा विवाह करना भी इसी अतिचार के अन्तर्गत् माना है।
व्यावहारिक दृष्टि से भी अन्यों के विवाह करवाने में परेशानी आ सकती है, जैसे- विवाह करवाया, स्वभाव के कारण सम्बन्ध का निर्वाह सुचारु रूप से नहीं हुआ, अथवा विवाह होते ही कोई रोग उत्पन्न हो गया, या उसके घर में नुकसान होने लगा,
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