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संघ-पूजा के पश्चात् अन्य विशेष कार्यों को करने का विधान बताते हुए आचार्य हरिभद्र जिनबिम्ब-प्रतिष्ठानविधि-पंचाशक में कहते हैं कि जीवदया की प्रवृत्ति करना चाहिए। चूंकि जीवदया स्वदया है, अतः शुभ कार्य करने का परिणाम तब ही सामने आता है, जब गृहस्थ जीवदया हेतु दान करता है। इस दान से पुण्य रूपी कल्प-वृक्ष बढ़ता रहता है। तत्पश्चात्, स्वजन-साधर्मिक का सत्कार करना चाहिए, अर्थात् स्वधर्मी-जनों के प्रति वात्सल्य भाव प्रकट करना चाहिए। इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र जिनबिम्ब-प्रतिष्ठानविधि-पंचाशक की छियालीसवीं तथा सैंतालीसवीं गाथा में' कहते हैं
प्रतिष्ठा के अधिकार में प्रसंगवश संघ-पूजा का विवेचन यहाँ किया गया। प्रतिष्ठा के पश्चात् तीर्थ की उन्नति करने वाले अमारि ( हिंसा-निवारण ), घोषणा आदि अन्य अनुकूल कार्य भी अवश्य करना चाहिए।
___ प्रतिष्ठा के पश्चात् स्वजनवर्ग का विशेष रूप से लोकपूजारूप सत्कार करना चाहिए, क्योंकि स्वजनवर्ग व्यावहारिक दृष्टि से निकट का होता है। स्वजनवर्ग के बाद दूसरे सहधर्मियों का भी लोकपूजारूप सत्कार करना चाहिए, इससे स्वजनों और सहधर्मियों के प्रति उत्तम वात्सल्यभाव जाग्रत होता है। अष्टानिका महोत्सव - प्रतिष्ठा के अवसर पर भावोल्लास के साथ महोत्सव कराना चाहिए। यह महोत्सव भक्त को भगवान् से जोड़ता है, एवं इससे द्रव्य तथा भाव-पूजा करने की भावना जाग्रत होती है। इस प्रकार के महोत्सव से बच्चों से बड़े तक सभी जुड़ते हैं। अन्य मतों पर भी इसका अपूर्व प्रभाव पड़ता है तथा उन्हें भी श्रद्धा से अनुमोदन करने का अवसर प्राप्त होता है। आचार्य हरिभद्र प्रस्तुत पंचाशक की अड़तालीसवीं गाथा में इस विषय को स्पष्ट करते हुए कहते हैं
प्रतिष्ठा के अवसर पर शुद्धभाव से आठ दिनों तक महोत्सव करना चाहिए, इससे प्रतिष्ठित बिम्ब-पूजा का विच्छेद नहीं होता है- ऐसा कुछ आचार्य कहते हैं, जबकि अन्य आचार्य, तीन दिनों तक महोत्सव अवश्य करना चाहिए- ऐसा कहते हैं।
'पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 8/46,47 - पृ. - 146 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 8/48 - पृ. - 146
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