________________
हरिभद्र ज्ञानपिपासु तो थे ही, अतः उन्होंने ज्ञान की गहराई को पाने के लिए अपने मन को नया मोड़ दे दिया एवं तत्काल जैन- दीक्षा ग्रहण करने हेतु कृत संकल्पित हो गए। जैन प्रव्रज्या अंगीकार कर उन्होंने जैन-अध्यात्म का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया और अपनी प्रतिज्ञानुसार स्वयं को 'धर्मतोयाकिनीसूनु' के रूप में उद्घोषित किया।
जैन प्रव्रज्या स्वीकार कर वे जिन शासन के इतिहास में शाश्वत प्रकाश स्तम्भ बन गए। जन्म से ब्राह्मण होने के कारण ही उन्हें संस्कृत, व्याकरण, वेद, उपनिषद्, छन्दशास्त्र, दर्शन, ज्योतिष आदि का तलस्पर्शी ज्ञान तो था ही, परन्तु जैन-धर्म के अभिमुख होने पर उन्होंने जैन दर्शन का भी गम्भीर अध्ययन किया ।
हरिभद्र के अध्ययन की यह विशेषता रही कि उन्होंने अपने जैन दर्शन के अध्ययन से पूर्व में किए गए दर्शनों के अध्ययन को परिपुष्ट एवं समन्वित भी किया। विभिन्न दर्शनों को जैन-दर्शन के साथ समन्वित करने का उनका प्रयास इनके निम्न ग्रन्थों से प्राप्त होता है
योगदृष्टिसमुच्चय, शास्त्रवार्त्ता- समुच्चय, षड्दर्शन- समुच्चय आदि
आचार्य हरिभद्र का समय हरिभद्र के ग्रन्थों में हरिभद्र के समय की कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है । उनके ग्रन्थों में ग्रन्थ के रचना काल का भी निर्देश उपलब्ध नहीं होता है, जिससे उनके सत्ताकाल की कोई जानकारी मिल सके ।
-
डॉ. सागरमल जैन ने अपने 'समदर्शी आचार्य हरिभद्र' लेख में हरिभद्रसूरि के विषय में अपना मन्तव्य प्रकट करते हुए लिखा है कि हरिभद्र के समय के सम्बन्ध में अनेक अवधारणाएँ प्रचलित हैं, फिर भी उन्होंने इस सम्बन्ध में विशेष अन्वेषण के आधार पर मुनि जिनविजयजी द्वारा मान्य उस अवधारणा को ही पुष्ट किया हैं, जिससे हरिभद्र का सत्ताकाल वि. स. 700 से वि. स. 770 माना गया है।
हरिभद्र के समय-निर्धारण के विषय में अनेक विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से प्रयास किया है। वह इस प्रकार है
आचार्य मेरुतुंग (विक्रम की 14 वीं शताब्दी) की कृति 'विचार श्रेणी' में हरिभद्र का समय वि.सं. 595 बताया है।' प्रद्युम्नसूरि रचित 'विचारसार-प्रकरण' में व समयसुन्दरगणि द्वारा रचित 'गाथा सहस्त्री ' (1686) में तथा कुलमंडनसूरि (15 वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध) ने 'विचार अमृत संग्रह' में और धर्मसागर उपाध्याय (16 वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध) ने 'तपागच्छ गुर्वावलि' में हरिभद्रसूरि का समय वीर - निर्वाण संवत् 1055 निरूपित किया है। 10
9 'मेरुतुंग'
10 पंचाशक भूमिका, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 11
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
5
www.jainelibrary.org