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परिणाम शुद्ध होने का कारण- परिणामों की शुद्धि में जिनाज्ञा ही प्रधान है। जिनाज्ञा मानने वाला यदि आप्तपुरुषों द्वारा निर्दिष्ट विधि से कार्य करता है, तो दोषों से बच जाता है, अतः दूषित शिल्पकार को निर्धारित राशि, निर्धारित समय पर कम-कम अंशों में देने के बाद भी यदि वह उस राशि का दुरुपयोग करता है, तो वह दोष जिनबिम्ब बनवाने वाले को नहीं लगता है, क्योंकि बिम्ब बनवाने वाला तो जिनाज्ञा के अनुसार ही कार्य कर रहा होता है। जिनाज्ञा के कारण उसके परिणाम तो शुद्ध हैं ही, इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र जिनबिम्ब-प्रतिष्ठानविधि-पंचाशक की बारहवीं गाथा में' कहते हैं
___ आज्ञा के अनुसार प्रवृत्ति करने से परिणाम शुद्ध ही होता है। आज्ञा के विपरीत प्रवृत्ति करने से परिणाम शुद्ध नहीं होता है। आज्ञा के अनुसार प्रवृत्ति करने वाले को तीर्थकर के प्रति बहुमान होता है और तीर्थकर के प्रति बहुमान होने के कारण परिणाम शुद्ध ही होता है। आज्ञा के अनुसार प्रवृत्ति नहीं करने वाले का तीर्थंकर के प्रति बहुमान नहीं होता है, इसलिए उसका परिणाम भी शुद्ध नहीं होता है। आज्ञा की प्रधानता का कारण- जिनाज्ञा संसार के बन्धन को तोड़ने में निमित्त है। यदि आज्ञा-रहित कोई भी प्रवृत्ति करता है, तो वह संसार का कारण है, अतः जिनाज्ञा के अनुसार ही जिनभवन-निर्माण, जिनबिम्ब-निर्माण, प्रतिष्ठा आदि का कार्य
सम्पन्न करवाना चाहिए। यदि प्रतिष्ठा आदि तो धूमधाम से करवाई जा रही है, परन्तु किसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए आदि प्राथमिक भूमिकाओं का ध्यान ही नहीं रखा गया, तो जिन-आज्ञा नहीं मानने का दोष होगा और अन्य सभी कार्य व्यर्थ हो जाएंगे, अतः आज्ञानुसार ही सभी कार्य करने का प्रयत्न करना चाहिए। आचार्य हरिभद्र जिनबिम्ब-प्रतिष्ठानविधि-पंचाशक की तेरहवीं से पन्द्रहवीं तक की गाथाओं में इसी बात का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं
साधु या श्रावक-सम्बन्धी कोई भी प्रवृत्ति यदि अपनी मति के अनुसार हो, तो वह आज्ञारहित होने से सांसारिक फल देने वाली ही होती है, क्योंकि संसार को पार
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 8/12 - पृ. - 135 - पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 8/13 से 15 - पृ – 136
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