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________________ प्रकरण में बत्तीस विषयों को लेकर बत्तीस अष्टक लिखे गए हैं। षोडषक में सोलह विषयों को लेकर सोलह-सोलह गाथाओं में विवरण है। इसी प्रकार विंशतिविंशिका में बीस विषयों को लेकर उन पर बीसबीस प्राकृत गाथाओं में विवेचन किया गया है। इसी प्रकार पंचाशक- प्रकरण में पचास-पचास गाथाओं में उन्नीस विषयों का विवेचन किया गया है। इस प्रकार इन बहुआयामी ग्रन्थों में पंचाशक- प्रकरण विषय और विवेचन- दोनों की दृष्टि से अधिक प्रभावक प्रतीत हुआ । यही कारण रहा कि हमने हरिभद्र के इस ग्रन्थ पर अपने शोध को केन्द्रित करने का निश्चय किया । यद्यपि इस ग्रन्थ में आचार और विधि विधान सम्बन्धी पक्ष अधिक उभरकर आए हैं, साथ ही जैन-आचार पर और हरिभद्र के योग- साहित्य पर कार्य भी हुआ है, किन्तु जहाँ तक विधि-विधानों का प्रश्न है, उन पर अभी तक गम्भीर शोधकार्य नहीं हुआ, इसलिए हमने पंचाशक प्रकरण को अपने शोध का विषय बनाया है। इस शोध योजना में हम सर्वप्रथम आचार्य हरिभद्र के व्यक्तित्व और कृतित्व की चर्चा करेंगे और उसके पश्चात् आचार्य हरिभद्र के इस पंचाशक - प्रकरण के वैशिष्ट्य और उसकी विषय-वस्तु पर प्रकाश डालेंगे, साथ ही आचार्य हरिभद्र की समीक्षात्मक एवं समन्वयात्मक दृष्टि की चर्चा करेंगे 1 आचार्य हरिभद्र की जीवन-रेखा हरिभद्र का जन्म स्थान, जन्म, कुल परम्परा, गृहस्थ जीवन एवं जैन- परम्परा में दीक्षा आचार्य हरिभद्र के जीवन-वृत्त को उल्लेख करने वाला सबसे प्राचीन ग्रन्थ भद्रेश्वरसूरि द्वारा रचित 'कहावली' है। कहावली के उल्लेखानुसार हरिभद्र का जन्म-स्थान पिवंगुई बंभपुणी' ग्राम है, किन्तु अन्य ग्रन्थों में उनका जन्म-स्थान चित्तौड़ (चित्रकूट)' बताया गया है। दोनों संकेतों को देखने पर यह समानता लगती है कि पिवंगुई के साथ बंभपुणी का जो उल्लेख है, वह ब्रह्मपुरी का ही विकृत रूप है। सम्भवतः, ब्रह्मपुरी ग्राम चित्तौड़ का एक उपनगर या समीपस्थ कोई ग्राम रहा होगा। इसके अतिरिक्त कई ग्रन्थों में हरिभद्र का जन्म चित्तौड़ नगरी के स्थापना के पहले उत्तर की ओर बसी हुई भग्नावशिष्ट माध्यमिका- नगरी बताया जाता है, जो बहुत ही प्राचीन है तथा विद्याप और धर्म का केन्द्र रही है। इस नगर में वैदिक, जैन एवं बौद्ध परम्पराओं का अत्यधिक प्रभाव रहा है। यह नगरी शिवि 1 समदर्शी आचार्य हरिभद्र, सम्पादक- जिनविजय मुनि, पृ. 6 2 वहीं पृ. 7 3 वहीं पृ. 7 Jain Education International For Personal & Private Use Only 2 www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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