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________________ सम्बन्ध कहा जाता है। दिशा की अपेक्षा से दान देने का तात्पर्य, जिससे प्रतिबुद्ध हुआ हो, उस आचार्य को दान देना है। श्रावक को भेदभाव के बिना सभी साधुओं को दान देना चाहिए। जिस साधु के पास वस्त्रादि न हो, उसे वस्त्र देना चाहिए। यदि सभी के पास वस्त्रादि हों और सभी प्राप्त करने में समर्थ हों, अथवा किसी भी साधु को वस्त्रादि का अभाव न हो और कोई भी प्राप्त करने में असमर्थ न हों, अर्थात् सभी एक समान हों, तो एसे में सीमित शक्ति वाले श्रावक को अध्यात्म के क्षेत्र में मार्ग-निर्देश करने वाले साधु आदि के सम्बन्ध-भेद से दान देना चाहिए, अर्थात् जिस साधु का अपने ऊपर उपकार हो, उसे और उसके शिष्य-परिवार को प्रथम दान देना चाहिए। ऐसी स्थिति में यदि श्रावक दिशा-निर्देशक के सम्बन्ध के अनुसार दान न दें, तो जिनेश्वर की आज्ञा-भंग का दोष लगेगा। अनुबन्धद्वार - जो साधु आहार करते हुए भी अनासक्त-उदासीन रहता है, वह प्रत्याख्यान के भावों का उच्छेद नहीं करता है। यदि वह अपनी योग्यता के अनुसार कार्य करने पर भी गुरु की आज्ञा के अनुसार कार्य करता है, तो भी उसे प्रत्याख्यान का लाभ प्राप्त होता है, क्योंकि अपनी योग्यता के अनुसार कार्य करने से अधिक लाभ गुरु की आज्ञा मानने में है। शास्त्रों में भी कहा गया है कि शिष्य कितना भी तपस्वी हो, कितना भी यशस्वी हो, कितना भी ओजस्वी हो, पर यदि वह गुरु की आज्ञा स्वीकार नहीं करता है, तो वह जिनाज्ञा को भंग करता है। यदि गुरु योग्य है, गीतार्थ है, ज्ञानवान् है, तो गुरु जो भी आज्ञा देंगे, वह जिनाज्ञा के अनुसार देश, काल, भाव, देखकर ही देंगे। यदि शिष्य अपनी स्वेच्छा को महत्व देकर गुरु-आज्ञा का उल्लंघन करता है, तो यह उसका कदाग्रह है और यह कदाग्रह अनन्त संसार-भ्रमण का कारण होता है, फिर भले ही वह तपस्वी या संयमी क्यों न हो, अतः संसार-भ्रमण से बचने के लिए गुरु की आज्ञा मानकर ही तपस्या, स्वाध्याय, ध्यान, शयन, आहार आदि करना चाहिए। इसी बात को पुष्ट करते 161 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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