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प्रत्याख्यानविधि-पंचाशक की चौंतीसवीं गाथा में देते हुए उपर्युक्त विरोध का निराकरण करते हैं, जो इस प्रकार है
आहार का प्रत्याख्यान सर्वविरति में भी अप्रमादवर्द्धक होता है- ऐसा इसी पंचाशक की तेरहवीं गाथा में कहा गया है। त्रिविध-आहार में केवल पानी का उपयोग मात्र करने और शेष तीन प्रकार के आहारों का त्याग करने से अप्रमाद की वृत्ति अधिक बढ़ती है, अर्थात् सर्वविरति रूप सामायिक के ग्रहण से जो अप्रमाद के भाव का विकास हुआ था, उसमें त्रिविध-आहार के प्रत्याख्यान से भी वृद्धि ही होती है, इसलिए साधु त्रिविध-आहार का प्रत्याख्यान कर सकता है।
त्रिविधाहार प्रत्याख्यान के पुष्ट करने हेतु अन्य तर्क दिया गया है कि जब त्रिविधाहार प्रत्याख्यान को उचित माना जा सकता है, तो अस्वस्थता आदि विशेष परिस्थितियों में क्या द्विविध आहार के भी प्रत्याख्यान किए जा सकते है ?
प्रस्तुत प्रश्न का उत्तर आचार्य हरिभद्र प्रत्याख्यानविधि-पंचाशक की पैंतीसवीं गाथा में देते है
___ आपकी यह बात सत्य है, किन्तु साधु को प्रायः अस्वस्थता आदि विशेष परिस्थितियों के अतिरिक्त खादिम और स्वादिम आहार ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं होती है, क्योंकि उसे शास्त्रनुसार वेदना आदि छ: कारणों से ही भोजन करना आवश्यक है। खादिम और स्वादिम आहार इन कारणों में उपयोगी नहीं होते हैं, किन्तु विशेष परिस्थिति में स्वादिम एवं खादिम की छूट होने से साधु के द्वारा द्विविध आहार का प्रत्याख्यान लिया जा सकता है। भोगद्वार – भोगद्वार में भोजन की विधि बताई है कि भोजन कब करना तथा भोजन करने के पूर्व क्या विधि है, जिसे करके फिर शान्त चित्त से भोजन ग्रहण किया जाए। चूंकि भोजन का प्रभाव शरीर एवं विचारों पर पड़ता है, अतः जिस भोजन से शरीर के वात, पित्त, कफ आदि भी शान्त हों, जिससे वे विकृत न हो जाए- ऐसा भोजन ही
पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि - 5/33 - पृ. - 92 पंचाशक-प्रकरण-आचार्य हरिभद्रसूरि -5/34- पृ. -93 पंचा एक प्रकरण- आचार्य हरिभद्र सूरि-5/35 - पृ.सं. -92
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