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________________ प्रत्याख्यान का स्वरूप परमात्मा द्वारा ही निर्दिष्ट है। परमात्मा की आज्ञा का पालन करना ही धर्म है, अतः साधु-वर्ग को भी प्रत्याख्यान का पालन करना आवश्यक प्रत्याख्यान से अप्रमत्तदशा की वृद्धि होती है- यह अनुभव प्रमाण है, क्योंकि प्रत्याख्यान से व्यक्ति कर्म से भी हल्का होता है तथा मन एवं विचारों से भी हल्का होता है, इन्द्रियों के विषयों से भी हल्का हो जाता है, अतः स्वतः अप्रमत्त अवस्था की वृद्धि होती जाती है। इसी वृद्धि के विषय का आचार्य हरिभद्र प्रत्याख्यानविधि-पंचाशक की चौदहवीं गाथा में' प्रतिपादित करते हैं प्रत्याख्यान से सामायिक-चारित्र में अप्रमाद की वृद्धि होती है। इसमें अनुभव प्रमाण है, अर्थात् प्रत्याख्यान करने वालों को प्रायः अप्रमाद की वृद्धि का अनुभव होता है। इससे अन्तर और बाह्य- ये दो लाभ होते हैं। अप्रमाद विरति का स्मरण कराता है- यह अन्तर लाभ है और अप्रमाद से सम्पूर्णतया शुद्ध प्रवृत्ति होती है- यह बाह्य लाभ है। यद्यपि सामायिक चारित्र में रहते हुए साधु अशुद्ध प्रवृत्ति का त्याग कर देता है, फिर भी प्रमाद, रोग, सत्व-गुण का अभाव आदि कारणों से, अथवा दूषित आहार के सेवन आदि से साधु-जीवन में दोश आ जाना सम्भव है। प्रत्याख्यान से इन सबका नाश हो जाता है और सत्व-गुण की अभिवृद्धि होती है। यहाँ प्रश्न किया गया कि प्रत्याख्यान करने वाला यदि चारों आहार का त्याग करता है, तब वह राग-द्वेष से विरक्त होता है, उसका सामायिक भंग नहीं होता है, पर अमुक प्रकार के आहार आदि का त्याग करे, तो सामायिक भंग होगा, क्योंकि जिस आहार का उसने त्याग नहीं किया है, तो उसके प्रति उसे राग-भाव रहेगा और जिसका त्याग कर दिया है, उसके प्रति द्वेष रहेगा। प्रस्तुत प्रश्न उचित नहीं है। ऐसा नहीं है कि जिसका त्याग किया, उसके प्रति द्वेष रहेगा और जिसका उपयोग कर रहा है, उसके प्रति राग-भाव रहेगा। प्रत्याख्यान करने वाला जिसका त्याग कर देता है, उसके प्रति द्वेष नहीं रखता है। चूंकि वह स्वेच्छा से मनोयोगपूर्वक त्याग करता है, अतः उसे त्याग के प्रति न ' पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि - 5/14 - पृ. - 85 149 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003972
Book TitlePanchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakprabhashreeji
PublisherKanakprabhashreeji
Publication Year2013
Total Pages683
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual, & Vidhi
File Size10 MB
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