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आउटण पसारेण (आकुंचन-प्रसारण) - यदि शारीरिक-परिस्थिति के कारण एक आसन से न बैठ सकें, तो पांव आदि हिलाने या फैलाने पर प्रत्याख्यान भंग नहीं होता
गुरुअब्भुट्ठाणेणं (गुरु अभ्युत्थानेन)- आचार्य, गुरु, अथवा नूतन साधु के आने पर विनय के लिए उठना पड़े, तो प्रत्याख्यान का भंग नहीं होता है। पारिट्ठावणियागारेणं (पारिष्ठापनिकागारेणं)- साधु-साध्वियों के समूह हेतु लाया गया आहार अधिक आ गया है, जिसे खा नहीं सकते हैं, अतः एकासन उपवास वाला वह आहार करे, तो प्रत्याख्यान भंग नहीं होता है, क्योंकि साधु आहार को परठ नहीं सकता है। आहार परठने(फेंकने) में अधिक दोष बताया गया है, परन्तु उपवास आदि में भी खाने में लाभ बताया है। यदि कोई आहार ग्रहण करने वाला नहीं हो, तो विधिपूर्वक निरवद्य स्थान में ही परठना चाहिए। यह ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि आहार करने के पश्चात्, आहार नहीं कर सकने पर ही प्रतिस्थापन करवाएँ, अन्यथा नहीं। एकठाणा (एकस्थान) – एक ही स्थान पर स्थित होकर भोजन करना एकठाण है। एकासन में बैठक के अतिरिक्त शरीर हिला सकते हैं, परन्तु एकठाण में केवल एक हाथ एवं मुंह ही हिला सकते हैं। एकासन तो तिविहार भी होता है, परन्तु एकाठणं तो चौविहार ही होता है, अर्थात् एक ही बार भोजन-पानी ले लेना। एकासन से उठने के बाद पानी पी सकते हैं, पर एकठाण में नहीं। एकासन में आठ आगार होते हैं, जबकि आउंटण को छोड़कर एकठाण में सात आगार होते हैं।
पंचप्रतिक्रमणसूत्र, प्रबोधटीका के अनुसार' एकासना, एकलठाण, बियासन आदि में भोजन एवं पानी को मिलाकर चौदह आगार हैं- अनाभोग, सहसांकार, सागारिकाकार, आकुंचन-प्रसारण, गुर्वभ्युत्थान, पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार, सर्वसमाधि-प्रत्याकार, लेप, अलेप, अच्छा, बहुलेप, ससिकथ, असिकथ। पश्चात् के ये छ: आगार पानी के हैं।
1(क) पंचप्रतिक्रमणअर्थ - उपा. मणिप्रभसागरजी - पृ. - 211 (ख) प्रबोधटीका - भद्रंकर विजयगणि - प्र. - 281
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