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________________ को अतीत-अनागत की चेतना होती है, फिर भी उनका अतीत-अनागतकाल का चिन्तन अति अल्प होता है, अतः वे असंज्ञी हैं। इसी प्रकार, प्रवृत्ति, निवृत्ति से रहित एकेन्द्रिय जीव भी असंज्ञी ही हैं। यद्यपि पृथ्वी आदि में भी आहारादि दस संज्ञाओं की विद्यमानता प्रज्ञापनासूत्र में बताई गई है, तथापि वे संज्ञी नहीं कहलाते। कारण, उनमें ये संज्ञाएं अति अव्यक्त रूप में हैं। जैसे अल्पधन होने से कोई धनवान् नहीं कहलाता, या आकार-मात्र से कोई रूपवान् नहीं कहलाता, वैसे ही आहारादि संज्ञा होने से कोई संज्ञी नहीं कहलाता। 3. दृष्टिवादोपदेशिकी-संज्ञा – जिसमें सम्यक्त्व विषयक प्ररूपणा हो, अथवा आत्मा के हित-अहित को दृष्टिगत रखते हुए निर्णय करना दृष्टिवादोपदेशिकी-संज्ञा है। इस संज्ञा की अपेक्षा से ही क्षायोपशमिक-सम्यग्ज्ञानयुक्त सम्यग्दृष्टि-जीव संज्ञी कहे जाते हैं। मिथ्यादृष्टि सम्यक् ज्ञान से रहित होते हैं, फिर भी व्यवहार की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि में कोई अन्तर नहीं होता। मिथ्यादृष्टि भी सम्यग्दृष्टि की तरह घट को घट ही कहता है, इस कारण दोनों संज्ञी कहे जाते हैं, तथापि तीर्थंकर परमात्मा द्वारा प्ररूपित वस्तुस्वरूप की यथार्थ श्रद्धा न होने से मिथ्यादृष्टि का व्यावहारिक-सत्यज्ञान भी अज्ञानरूप ही माना जाता है। वस्तुतः, अतीत वस्तु का स्मरण और अनागत की चिन्ता करना संज्ञा है। केवलज्ञानी के ज्ञान में त्रैकालिक सभी वस्तुएं सदाकाल प्रतिभासित होने से उन्हें स्मरण, चिन्तन करने की आवश्यकता ही नहीं है, अतः संज्ञा के इस अर्थ की अपेक्षा से क्षायोपशमिक ज्ञानी ही संज्ञी है। 4. उदयजन्य-संज्ञाएँ – कर्मों के उदय के कारण जो जीव आहारादि संज्ञाओं में स्थित रहता है, वह कर्मोदयजन्य संज्ञा कहलाती है। जैनागमों में कर्मोदयजन्य संज्ञा का वर्गीकरण अनेक प्रकार से मिलता है, जिसमें तीन वर्गीकरण प्रमुख हैं - 1. चतुर्विध वर्गीकरण - 1. आहारसंज्ञा, 2. भयसंज्ञा, 3. परिग्रहसंज्ञा और 4. मैथुनसंज्ञा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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