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संज्ञा के विभिन्न प्रकार एवं भेद -
जहाँ तक जैन-आगमों का प्रश्न है, उनमें संज्ञाओं की संख्या के सम्बन्ध में एकरूपता नहीं मिलती है। संज्ञा शब्द के विभिन्न अर्थों को लेकर उनका वर्गीकरण भी भिन्न-भिन्न रूप में हुआ है। संज्ञा का एक अर्थ आभोग है, अर्थात् जिसका अनुभव किया जाए, यह ज्ञानरूप है। इस आधार पर संज्ञाएं दो प्रकार की कही गई हैं -
1. क्षयोपशमजन्य और 2. उदयजन्य __ पुनः, क्षयोपशमजन्य संज्ञाओं के भी अनेक भेद हैं। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाली मतिज्ञान के भेदरूप संज्ञाएं तीन हैं -
1.दीर्घकालोपदेशिकी-संज्ञा, 2. हेतुवादोपदेशिकी-संज्ञा 3. दृष्टिवादोपदेशिकी-संज्ञा
1. दीर्घकालोपदेशिकी-संज्ञा - अतीत, अनागत एवं वर्तमान का ज्ञान दीर्घकालोपदेशिकी-संज्ञा है। जैसे मैं यह करता हूँ, मैंने यह किया, मैं यह करूंगा, इत्यादि। अतीत, वर्तमान और भविष्य का ज्ञान रखने वाला व्यक्ति दीर्घकालोपदेशिकी-संज्ञी है। यह संज्ञा मनःपर्याप्ति से युक्त गर्भज, तिर्यंच, गर्भज मनुष्य, देव और नारक के ही होती है, क्योंकि त्रैकालिक चिन्तन उन्हीं को होता है। इस संज्ञा वाले प्राणी के सभी बोध स्पष्ट परिलक्षित होते हैं।
2. हेतुवादोपदेशिकी-संज्ञा - जिस संज्ञा के कारण को देखकर किसी कार्य का ज्ञान हो जाता है, या जिस संज्ञा द्वारा प्राणी अपने देह की रक्षा हेतु इष्ट में प्रवृत्ति और अनिष्ट में निवृत्ति करता है, वह हेतुवादोपदेशिकी-संज्ञा है। जैसे -गर्मी हो तो छाया में जाना, सर्दी हो, तो धूप में जाना, भूख लगने पर आहारादि के लिए प्रवृत्ति करना आदि। यह संज्ञा प्रायः वर्तमानकालीन प्रवृत्ति-निवृत्तिविषयक है। द्वीन्द्रिय आदि जीवों
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