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को चुस्त रखने के लिए जितनी मात्रा में शरीर खाने को पचा सके, उतना ही आहार करना चाहिए। आहार की गरिष्ठता नहीं, आहार की संतुलितता उत्तम स्वास्थ्य के लिए कारणभूत होती है। सात्विक आहार से स्वास्थ्य के संरक्षण के साथ-साथ मन की शान्ति, चित्त की प्रसन्नता एवं सहनशीलता बनी रहती है। श्रीमद् भगवद्गीता में कहा गया है – 'योग उसी व्यक्ति को दुःखमुक्त करता है, जिसका आहार-विहार, सोना-जागना आदि कार्य नियमित होते हैं।'
भगवान् महावीर ने बार-बार हमारे विवेक को जगाया है – “जवणट्ठाए भुंजिज्जा" "जीवन-यात्रा को सुखपूर्वक चलाने के लिए आहार करो।" "मोक्ख साहण हेउस्स साहुदेहस्य धारणा। 34 'शरीर धारण का पवित्र उद्देश्य हैमोक्ष-साधना।' यदि आहार में विवेक न रखा गया, तो वह मोक्ष का साधन देह रोग, पीड़ा और क्लेश का घर बनने लगेगा, अतः आहार को ग्रहण करने के पूर्व आहार-विवेक अति आवश्यक है। “ऐसा हित-मित भोजन करना चाहिए, जो जीवन-यात्रा एवं संयम-यात्रा के लिए उपयोगी हो सके और जिससे न किसी प्रकार का विभ्रम हो और न धर्म की भंसना । 35
जो मनुष्य हितभोजी, मितभोजी एवं अल्पभोजी हैं, उनको वैद्यों की चिकित्सा की आवश्यकता नहीं होती। वे अपने-आप ही अपने चिकित्सक होते हैं। जो काल, क्षेत्र, मात्रा, आत्मा का हित, द्रव्य की गुरुता-लघुता एवं अपने बल का विचार कर भोजन करतें है उन्हें दवा की जरूरत नहीं रहती। कुछ वस्तुएं निश्चित समय में खाना अमृततुल्य हैं, जैसे-ज्येष्ठ और आषाढ़ मास में नमक, श्रावण-भाद्रपद मास में
34 दशवैकालिकसूत्र – 5/92 गाथा 35 तहा भोत्तत्वं जहा से जाय माता य भवति
नय य भवति विभगों, न भंसणा य धम्मस्स। (प्रश्नव्याकरणसूत्र 214) 36 हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा।
न ते विज्जा तिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिमिच्छगा।। (ओघनियुक्ति-578, आचार्य भद्रबाहु स्वामी) 37 कालं, क्षेत्रं, मात्रां, स्वात्मयं द्रव्य-गुरूलाद्यव स्वबलम
ज्ञात्वा योऽभ्यवहार्य, भुड़के किं भेष जैस्तस्य।। - (प्रशमरति 137 आ. उमास्वाति)
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