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सामान्य मानवों का मन्तव्य है कि आहार बहुत ही स्वादिष्ट होना चाहिए। वे अच्छे-से-अच्छे मिष्ठान, मिर्च-मसाले, अचार -मुरब्बे युक्त स्वादिष्ट आहार को ग्रहण करने में आनन्द की अनुभूति करते हैं, अतः उनका जीवन आहार के लिए ही है ।
दूसरे प्रकार के व्यक्तियों का यह चिन्तन है कि आहार में स्वाद नहीं स्वास्थ्य प्रमुख होना चाहिए, जो आहार शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाए । वह आहार चाहे उबला हुआ, कच्चा, मिर्च-मसाले से रहित, कैसा भी क्यों न हो । मात्र स्वास्थ्य के लिए ही आहार करना चाहिए ।
तीसरे प्रकार के आत्मार्थी साधकों का मन्तव्य है कि आहार के लिए जीवन नहीं, किन्तु जीवन के लिए आहार है, इसलिए आहार हितकारी, मितकारी और पथ्यकारी हो, स्वास्थ्य और धर्म दोनो ही दृष्टि से लाभकारी हो । पाश्चात्य-संस्कृति भी इस बात का समर्थन करती है 'Sound mind lives in a sound body'. स्वस्थ्य
शरीर में ही स्वस्थ्य मन का निवास होता है।
गीता में आहार के तीन प्रकार बताए हैं
1. तामसिक - आहार, 2. राजसिक - आहार 3. सात्विक - आहार
राजसिक - आहार हमारे चित्त की वृत्तियों को उग्र बनानेवाला होता है। तामसिक - आहार का अधिक प्रयोग व्यक्ति को सुस्त व निरुत्साही बनाता है, पर सात्विक - आहार हमारे चिन्तन को उदार सहनशील, विकसित और प्रमुदित बनाता
है ।
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अधिक चटपटे और मिर्च-मसालेदार आहार करनेवाला व्यक्ति अधिकतर क्रोधी स्वभाव वाला हो जाता है। ऐसे आहार से उसकी मनोवृत्ति कषाययुक्त हो जाती है, अतः अधिक चटपटे तामसिक - आहार का त्याग करना चाहिए ।
33 आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः ।
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अधिक चिकनाईयुक्त गरिष्ठ आहार करने से शरीर का मोटापा बढ़ने लगता है। अधिक मोटापा अपने-आप में सभी बीमारियों का घर कहा गया है। अतः शरीर
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गीता 16/7
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