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________________ एकेन्द्रिय जीव में आहार 30 पृथ्वीकाय, अपकाय, तेऊकाय, वायकाय और वनस्पतिकाय -ये सभी एकेन्द्रिय जीव के अन्तर्गत आते हैं। इन्हें मात्र स्पर्शेन्द्रिय होती है। अतः ये कवलाहार नहीं करते, मात्र रोमाहार करते हैं। पृथ्वीकाय प्रतिसमय निरन्तर आहार करते हैं। निर्व्याघात की अपेक्षा से ये छहों दिशाओं से और व्याघात की अपेक्षा से तीन, चार या पाँच दिशाओं से आहार लेते हैं। पृथ्वीकायिक द्वारा आहार के रूप में शुभ अनुभव या अशुभ अनुभव-रूप पुद्गल ग्रहण करते हैं। पृथ्वीकायिक जीवों द्वारा आहार के रूप में गृहीत पुद्गल स्पर्शेन्द्रिय के रूप में परिणत होते हैं। इसका आशय यह है कि नारकों के समान एकान्तअशुभरूप में तथा देवों के समान एकान्त-शुभरूप में उनका परिणमन नहीं होता, किन्तु बार-बार इष्ट और कभी अनीष्ट के रूप में उनका परिणमन होता रहता है, यही नारकों से पृथ्वीकायिक जीवों की विशेषता है। विकलेन्द्रिय अर्थात् द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में आहार - द्वीन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय जीवों का आहार दो प्रकार का कहा गया हैलोमाहार और प्रक्षेपाहार (कवलाहार)। द्वीन्द्रियादि विकलेन्द्रिय जीव लोमाहार के रूप में जिन पुद्गलों को ग्रहण करते हैं, उन सबका पूर्ण रूप से आहार करते हैं, क्योंकि उस आहार का स्वभाव ही वैसा होता है। जिन पुद्गलों को वे प्रक्षेपाहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उनके असंख्यातवें भाग का ही आहार कर पाते हैं। उनमें से सहस्त्रभाग उनके द्वारा बिना स्पर्श किए, आस्वादन किए यों ही विध्वंस को प्राप्त हो जाते हैं, क्योंकि उनमें से कोई पुद्गल अतिस्थूल (बड़ा) होने के कारण और कोई अतिसूक्ष्म होने के कारण उनका आस्वाद नहीं ले पाते हैं। 30 प्रज्ञापना, प. 28/1, सूत्र-1807 वही, 4. 28/1, सूत्र -1919-1823 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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