SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है -तथाविध शक्ति द्वारा अपने शरीर को पुष्ट करने वाले पुद्गलों को मन से ग्रहण कर आत्मतृप्ति एवं आत्म-संतोष प्राप्त करना। नरक के जीवों में अशुभ-कर्म के उदय से ऐसी शक्ति नहीं होती है, परंतु प्रज्ञापनासूत्र में नरक के जीवों के आहार भी निम्न दो प्रकार से बताए हैं - (1) आभोग-निवर्तित (2) अनाभोग-निवर्तित 1. आभोग-निवर्तित – जो इच्छापूर्वक खाया जाए। यह आहार पर्याप्तावस्था में ही होता है, क्योंकि 'मैं अमुक पदार्थ खाऊँ' – ऐसी इच्छा पर्याप्तावस्था में ही हो सकती 2. अनाभोग-निवर्तित - जो खाने की विशिष्ट इच्छा के बिना ही खाया जाए, जैसेवर्षा ऋतु में शीतपुद्गलों का अनायास शरीर में प्रवेश होना। यह आहार अपर्याप्ता देवों में होता है, कारण, उस समय मनपर्याप्ति न होने से आहार की विशिष्ट इच्छा नहीं होती है। जैन-ग्रन्थों में आहार के विभिन्न प्रकारों के अन्तर्गत नरक के जीवों का आहार उष्णता एवं शीतलता के आधार पर चार प्रकार का प्रतिपादित किया गया है 1. अंगारोपम, 2. मुर्मुरोपम 3. शीतल और 4. हिमशीतल । तिर्यंच जीवों के आहार को कंकोपम, विलोपम, पाणमांसोपम एवं पुगसांसोपम के भेद से चार प्रकार का निरूपित किया गया है। मनुष्यों का आहार अशन, पान, खादिम और स्वादिम के भेद से चार प्रकार का है। यही चार प्रकार का आहार मनोज्ञ एवं अमनोज्ञ के आधार पर आठ प्रकार का हो जाता है। देवों के आहार को गोयमा! णेरइयाणं आहारे दुविहे पण्णते, तं जहा - (1) आभोगणिव्वतिए य (2) अणाभोगणिव्वत्तिए य 1. तत्थ णं जे से अणाभोगणित्वतिए, से णं अणुसमयमविरहिए आहारट्टे समुप्पज्जइ 2. तत्थ णं जे से आभोगणिव्वत्तिए से णं असंखेज्जसमइए संतोमुहुत्तिए आहारट्टे समुप्पज्जइ। प्रज्ञापनासूत्र, प. 28, उ. 1, सूत्र-1795 26 अट्ठविहे आहारो पण्णते, तं जहा - स्थानांगसूत्र 4/4/340 1-4 - मणुण्णे असणे जाव साइमे 1-4 - अमणुण्णे असणे जाव साइमे - स्थानांगसूत्र 8/सूत्र 623 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy