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________________ आहार - संज्ञा के उद्भव के कारण जीव की सबसे प्रथम अपेक्षा है जिजीविषा अर्थात् जीवन जीने की प्रबल इच्छा, जो जीवन के अंत तक रहती है । इसी से वह जीने के प्रथम साधन आहार की ओर दौड़ता है । अनादिकाल से चली आ रही इस प्रवृत्ति को ही आहार - संज्ञा कहते हैं। आहार शब्द ( आ + ह् + ञ्) 'आ' उपसर्ग सहित 'हृञ' हरणे धातु से बना है, जिसका अर्थ है -लाना, निकट लाना, हरण करना या ग्रहण करना, अतः अन्तरंग में क्षुधावेदनीय कर्म के उदय या उदीरणा से तथा बहिरंग में आहार को देखने से, या चित्तवृत्ति उस ओर जाने से, अथवा पेट खाली होने से जीव को जो आहार ग्रहण करने की इच्छा होती है, उसे ही आहार - संज्ञा कहते हैं । आहार - संज्ञा से तात्पर्य प्राणियों के भीतर निरंतर भोजन ग्रहण करने की या आहार लेने की मांग बनी रहने से है। आहार - संज्ञा बाहरी पोषक तत्त्वों को स्वयं के भीतर डाल लेने की वृत्ति है । यह वृत्ति हर प्राणी में होती है और समय-समय पर प्रकट होती है, शेष समय में सुप्तप्राय रहती है । 13 स्थानांगसूत्र 14 में आहार - संज्ञा की उत्पत्ति के निम्न चार कारण बताए हैं 13 आहारदंसणेण यतस्तुवजोगेण ओमकोढाए । सादिदरुदीरणाए हवदि हु आहार सण्णा हु ।। (गोम्मटसार, जीवकाण्ड 134 ) 1. जठाराग्नि द्वारा पूर्व गृहीत आहार का पाचन होने पर, अर्थात् पेट के खाली हो जाने से । 2. क्षुधावेदनीय - कर्म के उदय से । 3. आहार - सम्बन्धी चर्चा के श्रवणानन्तर उत्पन्न मति से । 4. आहार के विषय में चिंतन करते रहने से। 14 चउहि ठाणेहि आहार सण्णा समुप्पज्जइ, तं जहा (1) ओमकोट्टयाए, (3) मईए Jain Education International (2) छुहावेयणिज्जस्स कम्मस्स उदएवं, (4) तदट्ठोवओगेणं | 43 - For Personal & Private Use Only (स्थानांगसूत्र, अ. 4/4/356) www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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